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________________ १४३ ." उत्सव रचाया है । घनी श्यामल अमराइयाँ मंजरियों से लद आई हैं। उनके गोपन अन्तराल में कुहुकती कोयल को 'पिहू पिहू पुकार अन्तहीन हो गई है। उसमें जन्मान्तरों की जाने कितनी प्रियाओं की विदग्ध स्मृतियाँ कसक रही हैं। दिशाओं की बाँहें किंशुक फूलों से व्याकुल हो कर दहक उठी हैं । आग्नेय कोण में ग्रीष्म का सवेरा अलसाया है । कृष्णचूड़ा के वन तले किसने केशरिया शैया बिछा दी है ? अमलतास की डालें जाने कैसे तन्द्रिल, स्वप्निल पीले फूलों से नमित हो आयीं हैं। विकसित कदम्ब पुष्पों की रज से सैरन्ध्री जाने किस पद्मांगिनी के स्तन मंडल पर पत्रलेखा रच रही है । और सहसा ही ईशान दिशा में, घिर आये बादलों की निर्जन छाया में नाचते मयूरों के केका-रव से विरहिणी के प्राण पागल हो उठे हैं । कृष्ण कमलों से लदी कादम्बिनी शैया पर अविराम वृष्टि धाराओं में नहाती नग्न बिजलियाँ छटपटा रही हैं । उन पर किसने यह इन्द्र धनुष की महीन ओढ़नी डाल दी है ? सहस्रों नील कमलों की आँखें किसके लिये टकटकी लगाये हैं ? पारदर्शी नीलिमा के तटान्त पर, काश फूलों के वनान्तराल में छुपी कौन श्वेतांगिनी रह-रह कर झाँक उठती है ? वन मल्लिका और कामिनी फूलों से महकती इस शरद संध्या में किस मिलन-रात्रि का आमन्त्रण है ? 'औचक ही हेमन्त की तुहिन तरल रात सिंधुवार पुष्पों की महक से मातुल हो कर, अपने भीतर की अग्नि को खोज रही है।'' और कहीं हिम - शिलाओं से जटिल सरोवर के एकाकी स्फटिक तट पर सारे ही वन-काननों के पियराए पत्ते एक साथ आ कर झड़ रहे हैं। बर्फानी आँधी के विनाश-पक पर कोई अनादिकाल की विरहिणी अपने अज्ञात योगी प्रियतम के लिये अग्नि-कंकणों भरी बाँहें फैलाये है । • ऋतु-रानियों के इस संयुक्त उत्सव का आँगन, पलक मारते में सहस्रों सुन्दरियों से भर उठा। मर्त्य पृथ्वी का सारभूत लावण्य जिनमें मूर्त हुआ है, ऐसी ज्ञात-अज्ञात तमाम द्वीप - देशान्तरों की रूपसी बालाएँ । सोलहों स्वर्गों की इन्द्राणियाँ, देवांगनाएँ, अप्सराएँ । उर्वशियाँ, तिलोत्तमाएँ । किन्नरियाँ और गन्धर्व - कन्याएँ । रूप और यौवन का उत्ताल तरंगित सागर । हर तरंग में जाने कितनी लहरियाँ । हर लहर में अनगिनती रूपसियाँ । हर रूपसि में से आविर्भूत होती, नित-नव्य यौवना सुन्दरियाँ । और हर सुन्दरी एकाकी, अत्यन्त वैयक्तिक प्रिया की तरह मेरे सम्मुख आ रही है । सर्वस्व समर्पण की चेतना और वासना से उसका अंग-अंग व्याकुल और चंचल है । निवेदन के आरत अच्छ्वास से वह विव्हल है । कातर आहों में फूटता उसका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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