SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से कण-कण रोमांचित है। द्वाभा की स्तिमित उजियाली में आसपास के पेड़, पौधे, लता, गुल्म, जड़-जंगम, पशु-पंखी सब पुलकित दिखाई पड़े। और जैसे मेरे ही मस्तक पर से उदय होते सूर्य की अरुणिम किरणों से सब जगमगा उठा है। ____ 'चरैवेति · · ·चरैवेति' : शीत हवा की लहरियों में गूंज उठा। और पाया कि अविचल पगों से चल पड़ा हूँ। अपनी ही लम्बाई तक की दूरी में मेरी आंखें बिछती चली जा रही हैं। भूमि के अंक में विचरते सूक्ष्मतम जीव भी मेरी आंखों के उस बिछाव में अपने को अघात्य अनुभव कर रहे हैं। और मैं एकाग्र दृष्टि से, एक-दिशोन्मुख चला जा रहा हूँ । दिशा कोई हो, जो सामने आये, उसी दिशा में सहज भाव से चला चल रहा हूँ। एकाएक अपने पीछे से आती एक आर्त पुकार सुनाई पड़ी : 'स्वामी ! स्वामी ! स्वामी !' __ मेरे पैर जहाँ के तहाँ अटक गये। मुड़कर मैंने नहीं देखा। सामने आकर एक चिथड़ेहाल दीन-हीन वृद्ध चरणानत हुआ और कातर हो कर विनती करने लगा : 'स्वामी, सुना है, आपने एक वर्ष तक अवढर दान किया है। कुण्डपुर का सारा राजकोष बहा दिया । मैं चिर काल का दरिद्र एक ब्राह्मण, तब दुर्दैव का मारा परदेश में आजीविका की खोज में भटक रहा था। इस सनिवेश का जन-जन स्वामी के दान से निहाल हो गया। एक मैं ही चिरवंचित, पीछे आपके राज्य में दरिद्र और अनाथ छूट गया । मुझे भी अपने दान से धन्य करें, प्रभु !' एकाग्र मैं उसे निहारता रह गया । मेरे ओठों पर मात्र एक स्मित फैल गया । शब्द मुझमें नहीं था । उत्तर में एक ध्वनि अपने भीतर उठती सुनाई पड़ी : 'मैं तो निष्किंचन हो गया, भूदेवता, मैं और मेरा अब कुछ नहीं रहा। निपट आकाश रह गया हूँ । वस्तु सब अपनी-अपनी हो गई। एक कण पर भी मेरा अधिकार नहीं रहा । तुम्हें जो दीखता हूँ, चाहो तो उसे ले सकते हो । . . .' ब्राह्मण की आँखें उमड़ती चली आईं । उसकी वे अनाथ कातर आँखें, उसको ही अपलक निहारती मेरी आँखों से जुड़ी रह गईं। · · ·कि सहसा ही अन्तरिक्ष में से उसके ठिठुरते, उघाड़े, जर्जर शरीर पर एक जगमगाता देवदूष्य वस्त्र टपक पड़ा। आँखें मींच कर वह हर्षातिरेक से दण्डवत में भूमिसात् हो पुकार उठा : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy