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________________ है; वह सूक्ष्मतम निगोद जीव, जो निरुपाय एक साँस में अठारह बार जन्ममरण के कष्ट को सह रहा है । वह रक्त-पीप से लथपथ, गलित-पलित कोढ़ी, जिसकी ओर कोई आँख उठा कर देखना भी नहीं चाहता । कितने अकेले हैं वे सब ? उनकी व्यथा, उनके विछोह की कल्पना तक से मनुष्य बचता है। . . . लेकिन अपने ही एकाकीपन, पीड़न, वियोग, संत्रास से कब तक मुंह छुपा कर चलोगे, आत्मन् ? · · ·उनका सामना करना होगा। उन्हें यों नकार कर, तड़प कर, बिल-बिलाकर, आँखें बन्द कर कब तक झेलोगे? उन्हें सामने लो, उन्हें जी जाओ, उनकी अन्तिमता तक । फिर देखो खुली आँखों, क्या बचता है ? · · · वही तुम हो, वही मैं हूँ, जिसका वियोग नहीं, विनाश नहीं । तुम सब इनसे पलायित हो, इसी से अनंतकाल में अन्तहीन कष्ट झेल रहे हो। तो मैं विवश हुआ कि नहीं, तुम सबको इस सन्त्रास और मृत्यु में जीते मैं नहीं देख सकूँगा, नहीं सह सकूँगा। तुम सबकी ओर से, जीव मात्र की इस चरम यंत्रणा और अन्तिम नियति का सामना करूँगा । उससे जूझंगा, उसकी जड़ों में उतर कर उसके अज्ञान और अभाव की जड़ तमिस्रा को भेदूंगा। स्वयम् सारे अन्धकार, नरक, यंत्रणा, मृत्यु, भय होकर, उन्हें उनके ही शस्त्र से पराजित करूँगा। उनके अन्तिम छोरों से अपने रोम-रोम को बिधवा कर, उन्हें चुका दूंगा । देलूँगा कि मृत्यु आखिर कहाँ तक जा सकती इस मर्त्यलोक के सारे मनों के मर्म मेरे मर्मान्तर में खुल रहे हैं : उनकी जन्मान्तरों की कष्ट-क्लिष्ट ग्रंथियों के बेशुमार जालों को अपनी शिरा-शिरा में उलझते, छटपटाते, कराहते महसूस रहा हूँ। जीव मात्र को जो आबद्ध किये हैं, उन कर्म-वर्गणाओं के तमाम अनादिकालीन क्लेश-पाशों और कषायों के प्रति अपने इस अस्तित्व को मैंने मुक्त कर दिया है। वे आयें, और अपनी आखिरी शक्ति के तमाम एकत्र बल से वे मुझ पर आक्रमण करें, प्रहार करें। उनके हर आघात, दंश और बन्धन के प्रति अब मैं प्रतिक्षण संचेतन, जागृत, अवबोधित रहूँगा । निरन्तर अप्रमत्त पूर्ण अवगाहनशील, सहिष्णु . अव्याबाध । · · ·और मैंने देखा : वहाँ कोई नहीं था : मैं भी नहीं। हेमन्ती रात की तीखी ठण्डी हवाओं के थपेड़ों के बीच एक हिमवान अटल था : विश्रब्ध, अन्तःसमाहित । ___ . . पैरों तले की सूर्यकान्त शिला हठात् थरथरा उठी। उसके कम्प के हिलोरे मेरी देह में रोमांचन जगा गये। देखा कि मेरे इस रोमांचन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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