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भेदनकारी उपसर्गों से, इस देह के कोशों और नाड़ियों के कई सप-गंजल्की ग्रंथिजाल छिन्न-भिन्न हुए हैं। · · 'नहीं इन्द्र, मझे तुम्हारी सहायता की ज़रूरत नहीं। श्रमण अपनी ही आत्म-शक्ति को शाण-पट्ट पर चढ़। कर अरिहन्त होते हैं . . !
कर्मग्राम में प्रतीक्षा करता गोशालक फिर मेरे साथ हो लिया । सिद्धार्थपुर के मार्ग में सात फूलों वाला तिल का एक क्षुप देख कर उसने पृच्छा की :
'स्वामी, यह तिल का क्षुप फलेगा कि नहीं?' 'यह फलेगा, भद्र। इन सातों ही फूलों के जीव एक फली में सात तिल होंगे।'
यह सुन कर गोशालक ने उस तिल स्तम्भ को वहाँ से उखाड़ कर फेंक दिया। · · ·आगे जा रहा हूँ, और पीछे का दृश्य दिखाई पड़ रहा है। . . . अकाल मेघवृष्टि हुई है। उच्छिन्न तिल-क्षुप को आर्द्र कर, मेघधारा ने धरती को भी भिजो दिया है। तभी एक गाय ने आ कर भीने तिल-क्षुप को अपने खुर से माटी में गहरा जड़ित कर दिया है । भूमिसात् हो कर वह मूलबद्ध और अंकुरित हो आया है। · 'जो कहता हूँ, वही हो जाता है । पर मैं तो कुछ चाहता नहीं, करता नहीं। बोलता तक नहीं । चुप ही रहता हूँ। फिर यह कौन है, जो हर प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर देता है ?' · · ‘मौनम् गिराम् !
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