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________________ ११५ आ गये हैं । भगवान से भी अधिक समर्थ हैं शायद भक्त । जो अपने भाव के बल उनसे मनचाहा करवा लेता है । भाव ही तो वस्तु-स्वभाव है । उष्णाक नगर की ओर अग्रसर हूँ । हठात् गोशाला चिल्ला उठा : ‘अनर्थ · · ‘अनर्थ · · ‘अनर्थ हो गया, भगवन् । हाय हाय, कैसा अपशकुन हो गया • अमंगल अमंगल !' मुझे अप्रभावित, अक्षुण्ण चलते देख कर वह फिर चीखा : 'अरे प्रभु, आप तो चलते भी ध्यान में ही हैं। अच्छा-बुरा, कुरूप-सुरूप कुछ भी नहीं देखते । बचाइये प्रभु, इस दुर्दैव से बचाइये ! ' मैं चुप, अकम्प वैसा ही चल रहा हूँ । 'अरे स्वामी, ऐसा वीभत्स दृश्य तो मैंने कभी देखा नहीं । मन ख़राब हो गया । असह्य है ं असह्य असह्य है यह विद्रूप । 'अरे एक निगाह देखें स्वामी, ये तुरत के ब्याहे वर-वधु आ रहे हैं। कितने बड़े-बड़े हैं इनके पेट, साक्षात् वृकोदर हैं । और ये इनके बड़े-बड़े भयंकर दाँत ! अरे, ये दाँत हैं कि दराँते हैं । बत्तख़ सी लम्बी हैं इनकी गर्दनें । और ये ठोड़ियाँ हैं कि घोड़ियाँ, चाहो तो इन पर सवारी कर लो । कन्धों में कूबड़े निकल आयी हैं, कि पहाड़ियाँ हैं ? ' और ये इनके चपटे नाक हैं, कि सपाट मैदान ! अहो, धन्य है विधाता की लीला ! कैसी अनुपम जोड़ी मिलायी है, खोजे न मिले। जान पड़ता है ये विधाता भी बड़ा कौतुकी है, भन्ते ? ' 1 गोशाला ठीक उनके सम्मुख जा कर ही, उच्च स्वर से यह काव्य-गान कर रहा है, और उन्मादी की तरह अट्टहास कर रहा है। साथ के बारातियों ने सहसा ही इस तल्लीन कवि को धर पकड़ा और चोर की तरह मयूर-बन्ध से बाँध कर बाँस की झाड़ी में फेंक दिया । वंशजाल में उलझा, छटपटाता वह गुहार रहा है : ? 'हे स्वामी, इन दुष्टों ने मुझे जानवर की तरह बाँध कर, जाली में घुसेड़ दिया है । फिर भी आप मेरी उपेक्षा कर रहे हैं देखते तक नहीं ? औरों पर तो आप अढलक कृपा करते हैं । दीन सेवक पर ही कृपा नहीं करेंगे ? ' Jain Educationa International मैं निरुत्तर ही आगे बढ़ गया। कुछ दूर जा कर खड़ा रह गया, उसकी प्रतीक्षा में।.. • मुझे यों अटका देख, बारातियों ने सोचा, जान पड़ता है यह कोई दुर्विपाक का मारा दुर्मति इन महातपस्वी देवार्य का सेवक है, पीठधारी और छत्रधारी है । सो उन्होंने उसे उठा कर, उसके पाश खोल, मेरे सामने पुरिया की तरह ला पटका, और वन्दन - नमन कर क्षमा-याचना करते अपनी दुर्निवार कंटक आँख उठा कर क्या अपने इस For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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