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________________ ११२ तू अपना प्रताप महेसूस करने में असमर्थ है । साम्राज्य और सुन्दरी से भी अधिक तू इस महिमा की अभीप्सा से पागल हो उठा है। इस भिक्षक के अहंकार को तोड़े बिना, तेरे सम्राट का अहंकार खड़ा नहीं रह पा रहा। तेरे पराजित और घायल अहम् की इस वेदना को अनुभव कर रहा हूँ। लेकिन तू भ्रांति में पड़ा है, श्रेणिक ! अकिंचन वर्द्धमान के पास तो वह अहंकार भी नहीं बचा। उसने तो सभी कुछ हार दिया । और यदि तेरी दृष्टि में अभी भी उसका कोई स्वत्व बचा है, तो उसे भी वह तेरे निकट हार देने आया है। ऐसे सर्वहारा और अकिंचन की प्रतिस्पर्धा में तू पड़ा है, तो इष्ट ही हुआ है । अपने को समूचा हारे बिना तेरा निस्तार नहीं। उस भिक्षुक जैसा हुए बिना, तेरा जीना असम्भव हो जायेगा। जानता हूँ, मद्रूप हो कर ही तुझे चैन मिलेगा । तुझ जैसा अपना प्रेमी और कहाँ पाऊँगा · · ? __कई बार पंचशैल की तलहटी में कायोत्सर्ग से निर्गत होने पर देखा है, मगध की सम्राज्ञी चेलना जाने कब से सामने बैठी है। मक्तकेशी, उज्ज्वल वसना, घटने पर चिबुक टिकाये वह एकटक भिक्षुक के धूलि-धसरित चरणों में तन्मय है। मुझे उन्मुख देख, उसकी वे बड़ी-बड़ी चिन्तामणि आँखें मेरे चेहरे पर व्याप जाती हैं। उस चितवन का अथाह दरद, और उसकी आरती मुझे विवश कर देती है। उसके विदग्ध विलासी लोचनों में, सम्यक्त्व की अनाविल आभा झाँकती है। उन पलकों के किनारों में छलकते गोपन सरोवर में योगी चाहे जब स्नानकेलि करने चला जाता है । - ‘और कभी-कभी उसमें गहरी डुबकी लगा कर, मगध की धरती के लचीले और उदात्त गर्भ में उतर जाता है। आठ महीने मगध में विहार करता रहा । कोई विघ्न या उपसर्ग राह में नहीं आया । मेरे भीतर के मार्दव को, इसी मार्दवी भूमि ने पहली बार ऐसा अचूक उत्तर दिया है। - अच्छा मागधी, अब हम चलेंगे । अटकना हमारा स्वभाव नहीं, अटन ही हमारी एकमात्र चर्या है। · · ·आलंभिका में वर्षायोग सम्पन्न कर कुंडक ग्राम आया हूँ । यहाँ के वासुदेव मन्दिर के एक कोने में ध्यानस्थ हो गया हूँ। एकाएक दिखाई पड़ा : गोशालक वासूदेव की प्रतिमा के सम्मुख अपना पुरुष-चिह्न रख कर उद्दण्ड भाव से खड़ा है। पुजारी उसे देखते ही भय के काँप उठा । उसे लगा कि किसी मनुष्य की सामर्थ्य नहीं, जो ऐसा कर सके । निश्चय ही गाँव के भैरव यहाँ प्रकट हो कर, यह रुद्रक्रीड़ा कर रहे हैं । वह बेदम वहाँ से भागा और ग्रामजनों को बुला लाया । क्षण भर वे भी भैरव के भय से आतंकित हो रहे । तभी गाँव के लड़के किलकारियाँ करते हुए गोशालक पर टूट पड़े । देखते-देखते उन्होंने लात-घुसे मार कर उसकी हड्डी-पसली एक कर दी। फिर उसे ले जाकर बाहर कहीं कटीली झाड़ियों में डाल दिया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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