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. . . 'अरे ओ भव्यो, कब तक अपने को भल कर, भय के वशीभत हो, सहन कोटि मिथ्या देवों को पूजते रहोगे ? तुम सब का वाता तुम्हारे ही भीतर बैठा है। उसी को पाओ, उसी को ध्याओ, उसो को पूजो, उसी को प्यार करो। वही तुम्हारा एक मात्र तारनहार है। अन्यत्र और अन्य, और कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं · · ।'
सप्तच्छद वृक्ष के नव-पल्लवों में से यह प्रबोधन वाणी सुनाई पड़ी। अपने अनजाने ही, आत्म-प्रतीति से आश्वस्त हो कर. आनन्द के गीत गाते ग्रामजनों की शोभा-यात्रा लौट गई।
तभी अचानक सुनाई पड़ा :
'स्वामी · · 'स्वामी' 'मेरे स्वामी । पा गया अपने नाथ को ! मैं मंखलिपुत्र गोशालक लौट आया, भन्ते । आप से बिछुड़ कर इन छह महीनों में मैंने अपार विपदाएँ सहीं । मृत्यु के मुख में से लौट कर आया हूँ, प्रभु । आप ही के अनुगृह से नया जनम पाया है। अब इन श्रीचरणों को छोड़ कर जाने की भूल कभी नहीं करूँगा । भव-भव का भटका शरणागत है, भगवन् ।'
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया । कीचड़, शैवाल, पत्तों-काँटों से आकीर्ण गोशालक की घायल नग्न मूर्ति प्रणिपात में भूमिष्ठ देखी।
'बुज्झह - ‘बुझह, - ‘आत्मन् ।'
'समझ रहा हूँ, भन्ते, सब समझ रहा हूँ। फिर भी बार-बार मूढ़ हो जाता हूँ। आपके पास कोई ऐसा कीला नहीं भन्ते, जिससे मेरे इस मन मर्कट को आप कीलित कर के रक्खें ?'
मयूर-पीछी से उसके जटाजूट मस्तक पर तीन बार आघात कर, मैं प्रयाण कर गया। वह फिर पहले की तरह मेरा छायानुसरण करने लगा।
· · · परिव्राट हूँ । परिव्राजन ही मेरा स्वभाव है । वही वस्तु और व्यक्ति मात्र की स्वाभाविक स्थिति है। द्रव्य के शुद्ध परिणमन का यावी, परिव्राजक हो हो सकता है।
केवलज्ञान के सिद्धाचल पर आरूढ़ होना चाहता हूँ। तो त्रिलोक और त्रिकाल के अतलान्तों में अवरूढ़ होना पड़ेगा। परम उत्कर्ष पर पहुँचने के लिये, चरम अपकर्ष की इस प्रक्रिया से गुज़रे बिना चैन नहीं। . . .
· · · कौन है यह गोशालक, जो एक अनिवार्य, आसुरी उत्तरीय की तरह मेरे कन्धे पर टँग गया है। अणु-अणु के बीच जो अज्ञान की अँधियारी खंदकें हैं, उन्हीं
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