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शरीर में कोई अपूर्व नाविन्य लहक उठे । उसके अणु-अणु में कोई असम्भव नयी रूपश्री झलमला उठे।
दिशाएँ किसी वज्रभेदी शंखनाद से थर्रा उठीं । घनघोर गरजते मेघों का ब्रह्मांडी डमरू बजने लगा । कड़कती बिजलियों के त्रिशूल पर्वत-शिखरों में भिदने लगे। · · मूसलाधार वर्षा आरंभ हो गई । मेरी बाह्य चेतना जाने कब तिरोहित हो गई । दृष्टि मात्र रह गया हूँ : और देख रहा हूँ :
. . एक वातरशना पुरुष अधर में दण्डायमान है । उद्भिन्न गर्भा धरती, उसके आश्लेष के लिये आकुल, उसके चरणों में लिपटी है । उस पुरुष में कोई स्पन्दन नहीं, प्रतिक्रिया नहीं । वह स्वयम् ही एक विशुद्ध क्रिया का प्रवाह है। क्रिया जो अगोचर है, पर स्वान्तःसंचारिणी है। धारासार वृष्टि-धाराएँ मानों उसी में से उठ कर, मेघनाद करती हुईं, उसी पर बरस कर उसका अभिषेक कर रही हैं । उसकी अस्थियाँ ही विस्फोटित हो कर बिजलियों में कड़क उठती हैं : और फिर उसी पर टूट कर उसकी पसलियों में समा जाती हैं । उसी का स्नायुजान, इन आसपास की अरण्यानियों में फैल कर, अपार शाखा-जालों में व्याप गया है । उसी के नाभि-कमल से उद्गीर्ण हो कर यह नदी उद्दाम वेग से अलक्ष्य में बह रही है। और जाने कब उसकी धमनियों में धंस आई है। . .
नदी में अनिर्वार बाढ़ आई है । आधी रात वह सारे तटवर्ती ग्रामों के उप्म आलोकित हज़ारों घरों को आप्लावित करती हुई, अपने में डुबा ले गई है । और मानों कि पृथ्वी के तटान्तों तक पहुँच कर, बेबस अपने ही में लौटती हुई, इस दिग्जयी पुरुष की जंघाओं में पछाड़े खा रही है । उसके पोर-पोर असंख्य गोपुरों-से खुल पड़े हैं। और मानों शत-सहस्र नर-नारी, वाल-वृद्धों से भरे लोकालय के सारे बाढ में डूबे घर, उसकी मांस-पेशियों के, नयी धूप से जगमगाते, प्रान्तरों में आ कर सुरक्षित बस गये हैं । उनकी पुरातन इयत्ता खो गई है : अपनी नयी अस्मिता में अपने को पहचान कर वे आल्हाद से स्तब्ध है। इतना अधिक तो अपने आपको उन्होंने कभी नहीं पहचाना था . . !
· · वर्षा के बाद पहली बार आज नयी धूप खिली है । चारों ओर प्रसन्न हरियाली का प्रसार है । दूरवर्ती एक टीले पर बैठा देख रहा हूँ : सारे सन्निवेश के ग्रामजन रंग-बिरंगे वस्त्रों में सजे, गाजे-बाजे के साथ जुलूस निकाल कर उस सप्तच्छद वृक्ष के तले आये हैं । उसके तलदेश में पड़े शिलातल की वे पूजा-आरती कर रहे हैं । यहाँ योगिराट् वर्षा-तप में ध्यानस्थ दिखाई पड़े थे, उन्हीं की कृपा से तो उनकी सारी वस्तियाँ, बाढ़ में डूब कर भी बाल-बाल बच गई थीं ! - - हाय, वे महापुरुप कुपित नदी-देवता को अपनी बलि चढ़ा कर, हमारा उद्धार कर गये ! . . .
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