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सहसा ही मैंने अपने को दण्डायामान देखा । 'तांत्रिक अनावश्यक है। · · !' मेरे ओठों से फूटा ।
और मैंने सैनिक के हाथ से मूसल लेकर अपने ही मस्तक पर वार किया । .बीच में मेघ ने हाथ फैला कर उसे झाल लिया।
'क्षमा करें, देवार्य वर्द्धमान कुमार ! आपके सिवाय यह किसकी सामर्थ्य हो सकती है ? · · वैशाली के देवर्षि राजपुत्र के प्रताप को पहचानने में देर हो गई। .. मैं मेघ, आपके पिता सिद्धार्थराज का चिर किंकर । आर्यावर्त के सूर्य को प्रणाम करता हूँ: · · !' और कई मस्तक सामने झुके दीखे । ।
'कल्याणमस्तु ! . . .' कहकर यात्रिक अपने पंथ पर आरूढ़ हो गया।
'वैशाली का देवर्षि राजपुत्र ?' . . 'इस टीके को अपने भाल पर धारण कर कब तक चलूंगा ? निश्चिन्ह आकाश के सिवाय और कोई शरीर मुझे स्वीकार्य नहीं । एक मात्र वह अन्तिम शरीर, जिसमें से सारे शरीर प्रकट होते हैं। जो अखिल का शरीर है। ___यहाँ तो सभी मुझे पहचान लेते हैं । वैशाली का राजपुत्र मेरे असली और आखिरी चेहरे का अवगुण्ठन बना हुआ है। इस आवरण को छिन्न करना होगा। इस आर्यों की भूमि में श्रमण के तप-तेज से भी लोग प्रभावित और नमित होते हैं। यह तपोलक्ष्मी भी माया की एक सात्विक चादर ही लगती है । तमोगुण और रजोगुण से भी यह सतोगुण का आवरण अधिक भ्रामक और खतरनाक है । पुण्यप्रभा का छल तोड़ना ही तो सबसे अधिक दुष्कर है। अहंकार और ममकार का वही सबसे अधिक दुर्भेद और मायावी दुर्ग है । त्रिविध कर्म-मल को काटने के लिये सत, रज, तम के इस त्रिकोण को भी भेदना ही होगा ।
सही पहचान एक ही हो सकती है : अन्तर्तम स्वरूप की पहचान । मेरा यह चेहरा उस स्व-रूप की आरसी जब तक न बन जाये, तब तक इसकी हर अन्य पहचान को अस्वीकार करता है। अपने तप-तेज के सात्विक प्रभा-मंडल का यह प्रजा-वन्दन स्वीकारना, पुण्य की सुवर्ण साँकलों को समर्पित होना है । ___ अपने ही भीतर, अपनी सम्पूर्ण पहचान से अभी मैं बहुत दूर हूँ । आज ध्यान में अन्तश्चेतना के और भी गहिरतर पटलों का सहसा ही अनावरण हुआ । एक मूलगामी धक्के के साथ, जैसे कोई महा पुरातन आदिम चट्टान टूटी। कोई विराट खन्दक खुल पड़ी। उसके अतल में अन्धकार का एक सीमाहीन रेगिस्तान फैला है । अँधियारे की राशिकृत बाल का-रज के प्रान्तर पर्त पर पर्त की तरह, दृष्टि के पार तक फैले हैं। कर्म-वर्गणाओं के दुविन्ध्य पहाड़ चारों ओर घटाटोप घिरे
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