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________________ ९० सो किसी ने उसे धमका कर पूछा : 'सच-सच बताना रे, कहाँ है तेरा स्वामी, वह चोरों का श्री पूज्य ?' गोशाले की जान में जान आयी । उसने सोचा : 'मेरे स्वामी का प्रताप देख कर, ये शरणागत हो जायेंगे । और मुझे मधु-गोलक की भिक्षा सहज ही सुलभ हो जायेगी ।' सो वह उन गोठियों को जम्बूवन में ले आया । दूर से मुझे टहलते देख कर, वे हर्ष मनाने लगे। पकड़ाई में आ गया आज चोरों का सरदार । और वे एक साथ चीत्कार कर, मुझे मारने दौड़े । उनके तड़ातड़ पड़ते लात-घूंसों के नीचे मैं वसुन्धरा-योग में गहरे से गहरे उतरता चला गया । इतना स्तब्ध और वज्रीभूत हो गया मेरा शरीर कि उनके चोटें करते हाथों को चोंट लगने लगी। वे अपने घायल हाथों को सहलाते, मेरी ओर एकटक देखते रह गये । सहसा ही उन्हें अनुभव हुआ कि उनके अंगांगों में चंदन का लेप हो गया है । 'अरे ये तो कोई अर्हत् जान पड़ते हैं ! और वे सब भूमिष्ठ प्रणाम कर, मन ही मन अनुताप - विगलित हो क्षमा याचना करने लगे । , 'अपने ही को क्षमा करो, भव्यो, अपना अपराधी अपने सिवाय और कोई नहीं ।' और मैं अपनी राह बढ़ गया । गोशालक को पीछे पेट भर चूरमे का मधुरान प्राप्त हुआ । तृप्ति के आनन्द से किलकारी करता, वह मेरे पीछे दौड़ा आ रहा है । कलंबुक ग्राम की ओर विहार कर रहा हूँ । सामने से वहाँ का शैलपालक कालहस्ति एक सैन्य की टुकड़ी लेकर चोरों के पीछे भाग रहा है। हम पर शंकित हो कर उसने पूछा : 'तुम कौन हो ?' मैंने उत्तर नहीं दिया । गोशाला भी कौतुक वश सयाने वानर की तरह मौन रहा । आवाज़ फिर कड़की : Jain Educationa International 'सच बताओ, तुम कौन हो ?' वनभूमि में उत्तर गूंजा : 'कोई नहीं ' !' हस्ति चकित हो गया । ये तस्कर तो गूँगे-से खड़े हैं, और जंगल जवाब दे रहा है । जान पड़ता है, कोई जादूगर चोर हैं । खुद चुप रहते हैं और पेड़ों से उत्तर दिलवाते हैं । ये तो ओर भी खतरनाक़ हैं । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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