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'इस पर क्या लिखता है, लाल ?' . 'वृक्ष लिखता हूँ, पहाड़ लिखता हूँ, नदी लिखता हूँ, तारे लिखता हूँ !' 'तो अक्षर नहीं लिखता ?'
'पेड़ जैसा अक्षर और कौन होगा। एक डाल में, कितनी डालें : डाल-डाल में कितनी पत्ती। अक्षर के भीतर अक्षर । तुम्हारी वर्णमाला के अक्षर भी कोई अक्षर हैं : एकदम सपाट !'
'मतलब?' 'अरे ऐसे भी अक्षर क्या लिखना, कि एक बार में एक ही बात लिखी जाये, और वह भी अधूरी । अधूरा लिखना, अधूरा पढ़ना । तब अनर्थ ही तो होगा, माँ ! वह अज्ञान ही देगा, ज्ञान उससे कहाँ मिलेगा?'
'सुन, रही हूँ लालू, पर समझ नहीं पा रही।'
'समझना जरूरी नहीं, माँ। बस बोध हो, एकाग्र, वही समाधान है। वही सुख है ! और सुख न मिले, तो ज्ञान किस लिये ?'
'तारे, नदी, पहाड़, पेड़ क्या लिखना है ! वे तो हैं ही!' 'लिखता क्या हूँ, पढ़ता हूँ इन्हें । पढ़ना-लिखना सब एक ही बात है।' 'तारों में क्या पढ़ता है . . ? पहाड़ में और नदी में क्या पढ़ता है ?'
'वे प्रतिक्षण मिट रहे हैं, फिर नये होकर उठ रहे हैं, फिर भी देखो न, आदिकाल से वही हैं। मैं भी हर क्षण मिट रहा हूँ, फिर नया हो कर उठ रहा हूँ, फिर भी कुछ हूँ, जो सदा था, सदा हूँ, सदा रहूँगा !' ।
'तो इसमें पढ़ना-लिखना क्या हुआ ?'
'पढ़ना-लिखना, चित्र आँकना, मति शिल्पन करना, संगीत-वादन करना, सब इसलिए है, माँ, कि हम इस बोध में निरन्तर रहें कि हम शाश्वत हैं, और नितनवीन हो रहे हैं । सब कुछ जो दृश्य है, ज्ञेय है, भोग्य है, वह नित-नवीन हो रहा है। इसी नित्य-नूतनता का अनुभव तो जीवन है। और वही जीने, भोगने, होने की एक मात्र सार्थकता है, आनन्द है । वही परम परितृप्ति है।' __माँ कुछ समझीं या न समझीं हों, पर उन्हें लगा कि उनके भीतर जैसे कहीं, कोई अज्ञात, अचीन्हा सुख का स्रोत खुल पड़ा है। चुपचाप, टगर-टगर, वे बेटे का आलुलायित-कुंतल मुखड़ा निहारती रहीं। बिन छुए ही, अपनी उमगती छाती की कोर से, वह माथा दुलरा दिया। और लौट कर चलीं, तो उन्हें लगा कि उनकी चाल जैसे बदल गई है ।
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