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प्रकृति और पुरुष
रत्न दीपों और सुगन्धित इत्र-प्रदीपों की रोशनी वाले इस नन्द्यावर्त प्रासाद में समय भी जैसे मच्छित और कैदी है। यहाँ की मसृण मयर-पाँखी शैयाओं में वह अलसाया और तन्द्रालीन रहता है । वातायनों से भीतर आते-आते आकाश ठिठक जाता है, हवाएँ प्रवेश करते-करते मदिर-मंथर हो जाती हैं ।
जानता हूँ, माँ की और पिता की सतत यही चिन्ता है, कि मैं इस महल में रहते हुए भी, कहीं और हूँ, यहाँ नहीं हुँ । मेरी अनुभति और ही तरह की है । यहाँ भी हूँ । वहाँ भी हूँ । सर्वत्र अपने होने का-सा अहसास होता है । इसी से गुरुजनों ने जब भी निषेध किया कि बाहर न जाऊँ, इस खण्ड या उस कक्ष में ही रहूँ, तो भीतर से ही कोई आपत्ति नहीं उठी। मन ही मन थोड़ी हँसी ज़रूर आ गई, कौतुक भी सूझा। ___ माँ, पिता और सभी परिजनों की यही चिन्ता है, कि मैं कैसे जीता हूँ, क्या करता हूँ, कैसे मेरे जीवन के ये बरस बीत रहे हैं । बाहर अब जाने लगा हूँ, पर अब तक उनके इंगित पर इन महलों की रत्न-चित्रित दीवारों के बीच ही विचरता था : या छतों और वातायनों पर से आकाश-विहार करता था। परिजनों में बहुत मिलने-जुलने की प्रवृत्ति भी मेरी नहीं रही : न उत्सवों, भोजों, विवाहों, जल्सों में मैं कभी दिखाई पड़ता हूँ। तो फिर क्या करता हूँ : कैसे जीवन-यापन करता हूँ ? माँ के चेहरे पर सदा यही प्रश्न लिखा देखा है। · पूछते जैसे वे सकुचा जाती हैं : हस्तक्षेप मेरे राज्य में करते उन्हें बहुत झिझक होती है। उन प्रश्न भरी आँखों में प्यार के उमड़ते समद्र मैंने स्तम्भित देखे हैं ।
मेरी ओर से तो कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है। वह मेरा स्वभाव नहीं । भीतरबाहर एकदम ही अनिरुद्ध पाता हूँ अपने को। उनकी ओर से आने वाली वर्जनाओं या प्रतिरोधों से भी कभी टकरा नहीं पाता । सहर्ष सभी बातों को भीतर समावेशित पाता हूँ, और आनन्दित रहता हूँ।
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