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शास्त्रों की किसी चौकी या आलय के सामने चुप खड़े, उन्हें ताकते रह जाते हैं । शास्त्र अकुला उठते हैं अपने आवेष्टनों में, कि कुमार उन्हें मुक्त करें, उनके रेशमीन बंधनों और जीर्ण होते हुए पत्रों से । लिखे अक्षरों की उस क़ैद में वे घुट गये हैं। वे खुले अंतरिक्ष में मुक्त और रौशन हुआ चाहते हैं ।
मन में आ जाये कभी तो मयूरपंख की क़लम उठा कर मसिपात्र में डुबो, लेखन- चौकी पर रक्खे, किसी भूर्ज-पत्र पर उटपटांग कुछ चितर देते हैं। चित्रशाला के अलिन्द में, राह चलते, किसी फलक पर तूली से एक आघात कर देते हैं, फिर उसमें जो भी अँक जाये । कुछ शिला - खण्डों या धातु-खण्डों को यूंही एकदूसरे से जोड़-जाड़ कर रख देते हैं: फिर जो आकार अवकाश में उभर आये । सोच कर, या लौटकर देखते नहीं । इस सारी रचना को, इन उपकरणों को, बस वे केवल देखते हैं । महल के भीतर को, अपने भीतर-बाहर को, आसपास फैली पड़ी तमाम प्रकृति को, जगत को, वे जैसे निश्चल भाव से देखते रहते हैं । इस देखने में ही मानो उनका सारा कुछ करना, जीना, भोगना आपोआप होता रहता है ।
उनका मन कहाँ लगा हुआ है, यह कौन बता सकता है । शायद अन्तिम रूप से वहीं लग गया है, जहाँ लगने को वह भटकता रहता है । माँ सेविकाओं से उनकी दिनचर्या का पता करती रहती है । पर कोई क्रम या अनुमान उसका नहीं मिल सका है। कभी-कभी कुमार एक सर्वथा रिक्त स्फटिक कक्ष में घंटों बन्द हो रहते हैं । तब पता लगने पर, माँ खण्ड के सारे कक्षों में फेरी लगा आती हैं । सब कुछ इतना अविक्षत, अस्पृष्ट, कुँवारा देखकर वे चिन्ता में पड़ जाती हैं। किसी भी तो वस्तु पर, इस खण्ड के वासी की कोई छाप, कोई क्रिया अंकित नहीं । हर चीज़ स्वयं आप है : स्वतंत्र है । वह किसी स्वामी से अधिकृत नहीं, भुक्त नहीं, मुद्रांकित नहीं । माँ का मन चिन्ता में पड़ जाता है। आखिर यह चुप्पी बेटा क्या करता है सारा दिन, कहाँ जीता है, कहाँ लगा है इसका मन ? ऐसे कब तक चलेगा ? कौन जाने ?
एक दिन रहा न गया, तो माँ हिम्मत कर चली आईं कुमार के खण्ड में । वे चुपचाप अलिन्द के उत्तरी रेलिंग पर खड़े, दूरियों में निहार रहे थे । कितने दिनों बाद आज हलके से उनके कंधे पर हाथ रख दिया, पीछे से :
'ओ माँ, आओ ! '
'क्या देख रहा है, मान ?'
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