SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ दिन, सप्ताह, महीने, वर्ष, बाहर वैधशाला की प्रकाण्ड बिल्लौरी घड़ी में रज बनकर अविराम झर रहे हैं। धूप घड़ी में चाँद-सूरज की कितनी परिक्रमाएँ हो गईं, गिनती नहीं है । दिवस, मास, ऋतु, संवत्सर आँकने की कुमार को फुर्सत नहीं । वह अपने में घूम रहा है : वे अपने में घूम रहे हैं । माँ और पिता ने इसी से संतोष कर लिया है, सरस्वती-भवन में ही रमा रहता है। पूछताछ से उसे नहीं । माँ इस बात को अन्तिम रूप से समझ गईं हैं भी इसकी प्रतीति करा दी है । कि मुद्दतें हो गई, वर्द्धमान थाहा जा सके, यह संभव और उन्होंने महाराज को कुमार कहीं जाता-आता नहीं । किसी से मिलता-जुलता नहीं । बोली उसकी विरल ही सुनाई पड़ती है। प्रकट है कि महल की मर्यादा उसने स्वीकार ली है । पर जब यही अनिश्चित है कि वह कहाँ स्थित है, तो उसकी मर्यादा का निर्णय कौन करे ? हवा अपने ही छन्द में बँधी बहती है। नदी अपने तट आप ही रचती चलती है । कुमार महल में रहते हैं या और कहीं, यह परिभाषित नहीं हो सकता । मर्यादा और अमर्यादा, नियम और अनियम से परे, उनकी जो स्थिति या गति-विधि है, उसकी खोज-ख़बर उन्हें खुद ही नहीं है । वे कब किस कक्ष या अलिन्द में रहते हैं, पता नहीं चलता । सारा दिन क्या करते रहते हैं, यह भी टोहा नहीं जा सकता । ठीक समय पर भृत्य या परिचारिकाएँ आती हैं। भवन की हर वस्तु को झाँड़-पोंछ कर आईने की तरह स्वच्छ कर जाती हैं। शयन, स्नान, वसन-धारण, भोजन की व्यवस्था नियत सेविकाओं द्वारा समय पर कर दी जाती है। कभी-कभी दासियाँ • देखकर अचंभित रह जाती हैं। रात बिछाये गये शयन के चादरे में एक भी शल नहीं पड़ा है । विपुल व्यंजनों वाला भोजन का थाल अछूता ही रह गया है । उपभोग और उपयोग की हर वस्तु मुंह ताकती अभुक्त पड़ी है। ज्ञान और विद्या के ये विविध और प्रचुर उपकरण तो पहले दिन से आज तक कुँवारे ही रह गये लगते हैं । सिवा इसके कि हर दिन दासियां उन्हें, झाड़-पोंछ या माँ कर यथास्थान चमचमाते रखती हैं । कुमार वर्द्धमान इस सारी रचना में सहज विचरते हैं । जैसे जंगल के पेड़ों में हवा, पहाड़ों को तराशकर बहती नदी । संगीत शाला में डोलते हुए, अकारण ही कौतूहलवश कभी वीणा का कोई तार टन्न से छेड़ देते हैं । गोया कि गुज़रती हवा ही झंकृत हो गया हो, उँगली से नहीं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy