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'चार पैर बाप के भी होते हैं, वैसी ही पूछ भी। वैसा ही माथा भी। चाहो तो उतना देखकर बाघ भी कह लो। मैं कहूंगा हाथी भी। और कुछ भी । मगर पूरा देखो मां, तो जो है वह कहने में नहीं आता, है न ?'
लड़का कहीं से कहीं आ पहुंचा है। इसकी परस्पर विरोधी लगती बातों से क्षण भर महारानी चकरा जाती हैं। फिर समझ-बुद्धि से परे सम्बोध पा चुप हो जाती हैं । उनके आश्चर्य का पार नहीं।
वन-क्रीड़ा में नागराज के फन पर, कुमार के कूद पड़ने की घटना आसपास के सारे अंचल में फैल गई है । महाराज और महारानी इस भयावह वार्ता से चौकन्ने हो उठे हैं । महारानी को रह-रह कर गर्भाधान की रात वाले अपने सोलह सपनों का ध्यान हो आता है। उनके अवचेतन में, गर्भावस्था में वह हिमवान की चट्टान पर पाया विचित्र साक्षात्कार भी चुपचाप झलकता रहता है। वह दोहद उनका एक ऐसा गोपन अनुभव है, जिसे वे अपने अतिरिक्त और किसी को आज तक बताने का साहस न कर सकी थीं। उसके स्मरण मात्र से, आज भी उनके रोमों में एक विचित्र आनन्द-मूर्छा के हिलोरे दौड़ने लगते हैं। महाराज को लगता है, कि सपनों के फल वे नहीं, कोई और ही उनके भीतर से बोला था। बालक के अनोखे करतब देखकर, उसकी प्रतिध्वनियां रह-रहकर उनकी अन्तश्चेतना में मंडराती रहती हैं।
माता-पिता मिलकर कभी परामर्श करते हैं; तो उनके बोल खुल नहीं पाते। एक रहस्य है, जिसे मन ही मन गुन कर वे चुप हो रहते हैं। विचित्र है इस बेटे का चरित्र । यह तो निरा समुद्र है : सतह पर तूफानी, तह में अथाह और गंभीर ।
पर लड़के के उपद्रवों से वे आशंकित और आतंकित हैं । पता नहीं कब क्या अघट घट जाये । लड़के को यों मुक्त रखना ठीक नहीं । बोले महाराज :
'देवी, अब तो कुमार बड़ा हो गया। गुरुकुल में विद्याभ्यास के लिए भेज दो।वहाँ के अनुशासन में इसका चित्त और चर्या केन्द्रित हो जायेगी। मनमानी ' नहीं कर पायेगा । और समय रहते विद्याध्ययन भी तो होना चाहिये । क्षत्रिय का पुत्र है, शस्त्र और शास्त्र दोनों में इसे पारंगत होना चाहिये।' ।
'सो तो समझ रही हूँ, स्वामी । पर उसका अपना ही ऐसा अनुशासन है, कि उस पर शासन कौन कर सकेगा? देखते नहीं हो, शासक होकर ही तो जन्मा है आपका बेटा। उस दिन आपको, उसके एक इंगित पर स्वयम् सिंहासन छोड़,
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