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शरद ऋतु की सुहावनी दुपहरी में, गाँव-नगर के लड़कों का दल बाँधकर, कुमार जंगल में खेलने को निकल पड़ा है। एक विशाल, पुरातन वट-वृक्ष पर, डालडाल, पात-पात कूद-फाँद कर पकड़ा-पाटी' का खेल चल रहा है।
कि इतने में अचानक एक लड़का चिल्लाया :
'हाय, साँप . . “साँप . . 'सांप . . . ' ___ पल मात्र में कोलाहल खामोश हो गया। अपनी-अपनी डाल से चिपटे रह गये सारे लड़के। सबने देखा : एक भयंकर भुजंगम, वट-वृक्ष के मूल में साढ़े तीन
आँटे मार कर, सैकड़ों फन उठाये फुफकार रहा है। पहले तो लड़कों की डिग्गियाँ बँध गई। पतों-से कांपते-थरथराते, सब अपनी-अपनी डालों से और भी कस कर चिपट रहे। फिर एक-एक कर वे भय के मारे, झाड़ से कूद-कूद कर भाग खड़े हुए।
वर्धमान को मानो कुछ लगा ही नहीं। भय तो और लड़कों के साथ भाग गया। कुमार तो आनन्द में मंगन हो गया। जैसे उसे कोई मनचाही चीज मिल गई है। उसे सदा कुछ असाधारण देखने, जानने की चाह लगी रहती है। कैसा सुन्दर और भव्य है यह सर्पराज! इसके गहरे हरे, पन्ने जैसे स्निग्ध, चमकते शरीर में जैसे सारा अरण्य चित्रित हो गया है। इसकी सरसराहट में नदी की लहरें हैं। बड़े इतमीनान से, टाँग पर टाँग डाले, कुमार वृक्ष की मध्य डाल पर, अपनी दोनों गुंथी हथेलियों में मुख टिका कर, सर्पराज के सौन्दर्य के साथ तन्मय हो रहा है। एक फन में सौ फन, सौ फन में सहस्र फन । कुमार का मन इससे खेलने को चंचल हो आया। पुकारा उसने : - 'ओ नागराज, तुम्हारे फन मुझे बहुत भा गये हैं। मुझे बैठाओ न उन पर। तुम्हें कष्ट होने नहीं दूंगा।'
और फणिधर, बेशुमार मणियों से जगमगाते सहस्रों फनों को तान कर, मस्ती से डोलने लगा।
कुमार सहज लीला भाव से, सीधा अपनी डाल से कूद कर भुजंग के फणों पर यों आ खड़ा हुआ, जैसे मां की गोद में आ बैठा हो। कुमार तो अपने जाने फूल से भी कोमल और हलके होकर टपके थे उस पर। पर सर्पराज को ऐसा लगा कि जैसे सुमेरु पर्वत के भार तले उनके फण कुचले जा रहे हैं। किन्तु सर्प को यह पीड़न भी बहुत प्रिय और मधुर लगा। इतना कि उसने अपने को समूचा कुचल जाने दिया। ..
· · ·और अचानक दूर पर खड़े, भय से किलकारी करते लड़कों ने देखा : वहां तो सर्प था ही नहीं। एक अति सुन्दर देव, कुमार को गोदी में लिये बैठा था।'
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