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'अच्छा लालू, हमें भी अपने खेल की सहेली बना लो न, हमें भी अपने खेलों के आँगनों में ले चलो !'
'अरे वाह, तुमने भी खूब कही, माँ ! लो अभी चलो। आओ - 'मेरे बहुत पास आ जाओ - 'आओ न माँ !'
माँ ने बेटे के विशाल मस्तक को छाती से चांप लिया। और लगा कि, सारा लोक उनके वक्षतट में छौने-सा दुबक गया है । . .
मां ने मर्यादा की लकीर खींच दी है, तो लड़का कई दिनों से अन्तःपुर की सीमा के बाहर नहीं गया । या तो उसकी बातों से, महल से लगाकर नगर तक में कोलाहल मच गया था। या अब एकदम ही चुप हो गया है। बुलाने पर भी किसी के पास नहीं जाता। दासियां दूर से ही बलायें लेती रहती हैं । उसे परवाह नहीं। माँ भी पास आने की हिम्मत नहीं करती हैं। कभी कीड़ा-कक्ष में खिलौनों को देखता चुपचाप डोलता है। कभी अलिन्द के डोलर पर अकेला झूलता रहता है । कभी गेलरी में, और कभी इस या उस वातायन पर खड़ा, दूरियों में निगाहें खोये रहता है। मां का मन चिन्तित, कातर हो आया । बुरा किया मैंने इसे बाँध कर ।
'क्यों रे लालू, मैंने तुझे कैद कर दिया न ?'
'नहीं तो । हम तो, जहाँ मन आये वहाँ जाते हैं। हमको कौन कैद कर सकता है ?'
"कितने दिनों से यहीं तो बन्द है तू !'
'अरे वाह मां, तुम तो कुछ भी नहीं जानतीं। हम तो सब जगह हैं, भई, यहां भी हैं, और कहीं भी हैं ।' . .'
'झूठा कहीं का, मुझे बनाने भी लगा है रे ?'
'सच्ची भइया, हातो फिरते ही रहते हैं। देखो न अम्मा, वह पहाड़ की चोटी है न, वह हमारी सहेली हो गई है। गलबांहीं डाल कर हमें अपने पार, जाने कहाँ-कहाँ घुमाती है । कित्ते देश, कित्तें लोक दिखाती है। तुम्हारी कहानियों में भी वैसे देश नहीं हैं, माँ !'
'बहुत अकेला पड़ गया है न । अकेले-अकेले तुझे अच्छा नहीं लगता न, बिट्ट ! सब संगी तेरे मैंने छुटा दिये।'
'अरे नहीं मां, तुम तो अपने ही मन से चाहे जो सोच लेती हो। हम को अकेले रहना अच्छा लगता है।'
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