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बाल भागवत के लीला-खेल
नन्द्यावर्त प्रासाद के चौथे खण्ड में, एक विशेष प्रकार के नये अलिंद का निर्माण कराया गया है । यह अष्ट-पहल दालान आठों दिशाओं में खुला है । स्फटिकशिला के शीशों से जड़े, विशद किंवाड़ों से यह निर्मित है। चाहे जब ये किंवाड़ पूरे खोल दिये जाते हैं। हवा, आकाश और प्रकाश इस अलिन्द में आरपार बहते हैं। इसकी छत और फर्श भी किसी बहुत हलके नील रत्न की टाइलों से बनाई
___इस दालान के बीचोंबीच गरुड़ के आकारवाला, एक पुखराज का पालना झूल रहा है । खरगोश के अति कोमल रोमों तथा पक्षियों के मसण परों के बिछोने पर बालक लेटा है। इतना चंचल और उद्दाम है उसके अंगों का संचालन, कि पालना बिना झुलाये ही झूलता रहता है । सुदक्ष वास्तुकार ने अलिन्द और पालने के धरातल को इस तरह समायोजित किया है कि दूर पर बहती हिरण्यवती नदी के प्रवाह को मानो यह पालना तटदेश हो गया है । पालने का सिराहना, उदयाचल के शिखर के साथ मानो समतल है। अस्ताचल जैसे उसके पायताने लेटा है। सूर्य और चन्द्रमा बालक के मस्तक पर भामण्डल की तरह उदय होते हैं, और उसके पायताने के तट में ही मानो अस्त होते हैं । वास्तुकला का एक अनुपम निदर्शन है यह अलिन्द ।
आरम्भ में महारानी-माँ के शयन-कक्ष में पालना बांधा गया था। पर बालक क्षण भर भी पालने में ठहर नहीं पाता था। माँ और धाय-माताओं की सारी सावधानी और जतन के बावजूद, जाने कब शिशु, एक दुर्दाम लहर की तरह उछलकर फर्श पर आ गिरता था। और गिर कर रोने के बजाय, एक चौड़ी मुस्कान के साथ किलकारी कर उठता था। माँ चिन्ताकुल हुई : कैसे बच्चे को पालने में माला जाये । पालने पर बंधे सोने-चांदी के सारे झुनझुने, झूमरें और महीन
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