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'यह क्या देख रही हूँ, किसी अचीन्ही गुफा में से, ऊपर को उठी आ रही एक शुण्ड : उसमें से शाखायित हो उठी हैं सात सूडें । फिर एक रुण्डमुण्ड विशाल पशु-काया। · · ·ओह, अपनी चिंघाड़ से दिगन्तों को हिलाता इन्द्र का ऐरावत हाथी : मेरे जघनदेश पर खड़ा है : अपनी कई-कई सूंडों से आकाश को छाता हुआ।
· · ·देखते-देखते वह हवा में तैरते बादलों में छितरा गया। • एक बादल उजलता-सा ऊपर आने लगा है । चन्द्रमा की एक द्रवित-सी शिला । उसमें तरंगायित होती-सी एक प्रचण्ड आकृति । • “अरे यह तो वृषभ है, बड़ा सारा सफेद बैल । इसके चौड़े कन्धों में जैसे नगाड़े बज रहे हैं। और पूरे आसमान को यह नीली घास की तरह चर रहा है ।
- इसकी कूबड़ में से खुल पड़ी है एक भयावनी गुफा । उसके चट्टानी गर्भ में घुमड़ रहा है, प्रच्छन्न मंद्र गर्जन । सहसा गुफा-द्वार में फट पड़ी एक दहाड़ : एक विराट् श्वेत सिंह लाल धारियों वाला : उसकी विपुल सोनहली अयाल में सूरज अन्तरित है। लो, वह पर्वत से पर्वत तक छलांगें भरता हुआ, क्षितिज के मण्डल को फांद गया । . .
__उसके ब्रह्मांडीय पदाघात से और अंतिम दहाड़ से मेरी त्रिवलि की रेखाएँ साँकलों-सी टूट पड़ी। मेरी नाभि में से प्रस्फुटित हो उठा एक दिगन्तव्यापी लाल कमल : कमल पर कमल, उस पर फिर कमल · · कमलों की आकाशगामी गन्धकुटी : शीर्ष पर आसीन है यह कौन दिव्यांगी सुन्दरी । । लक्ष्मी ! और उस पर दोनों ओर से शुण्डों द्वारा कलश ढालते दो गजराज · · · । अरे वह तो और कोई नहीं है, मेरी ही श्री-शोभा वहां आकार ले उठी है। · · ·और अपनी भरी-भरी बाहुएँ उठा कर, मैं स्वयम् ही तो अपना अभिषेक कर रही हूँ।केवल मैं ।
‘शेष रह गया अभिषेक-जल का दूर जाता शांत प्रवाह। उस पर अंतरिक्ष में से झूल आयीं हैं, दो मंदार फूलों की मालाएँ। गाती हुई मालाएँ : ‘बहुत दूर जाती हुई - बहुत पास आती हुई । उनमें से चू पड़ा एक फूल । . ___.. और यह क्या : वह फूल मेरे कुन्तलों के घने नीले पारावार में उग आया है, एक बड़ा सारा विपुलाकार चन्द्रमा होकर । पूर्ण चन्द्रमण्डल, ताराओं से घिरा हुआ। अरे यह तो मेरा ही चेहरा है । ऐसा कि उसे प्यार करने को जी चाहता है । पर अपने ही चेहरे को कोई कैसे चुमे · · ?
मैंने अपने से ही लजा कर, मुंह अपनी छाती में छुपा लिया । · · नहीं, यह मेरी छाती का कोमल गहराव महीं : यह उदयाचल का उत्तुंग, कठोर उभार है । और उस पर उदीयमान है, एक प्रकाण्ड प्रतापी सूर्य । । ।
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