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________________ मर्यादा तोड़ बहता महासागर . . खंदक की गुफा अपने ही को पार कर मई । इस तट पर अंधेरा भी नहीं है, उजाला भी नहीं है। केवल अपनी ही आभा है। अपने सिवाय यहाँ और कोई नहीं । अपनी ही प्रभा के विस्तार में अकेली लेटी हूँ। यह कैसी सभरता है। · · ! भीतर के जाने किस उद्गम से यह उमड़ी चली आ रही है । केवल स्पर्शबोध शेष रह गया है। अपनी ही छुवन से आप मिल हूँ। सारी इन्द्रियाँ इस ऊमिलता में तिरोलीन हो गयी हैं। समूचे अवकाश में यह कैसा अव्याबाध मार्दव व्याप गया है। जाने कैसी एक सुनम्यता का लोच अंग-अंग में भर आया है । स्वयम् ही अपने से चूंबित : स्वयम् ही अपने से आलिंगित हूँ। भीतर से उमड़ कर, जाने कैसा यह अब मुझे आप्लावित किये दे रहा है । देह की घनता और अवयवों के आकार इसमें रहरहकर सिरा जाते हैं, और फिर उभर आते हैं। किसी विशुद्ध एकमेव द्रव्य के. अतिरिक्त और कुछ नहीं। निरी नग्न सत्ता रह गई हूँ : अपने ही बहावों और लचावों में, मनचाहे आकार धारण करती हुई। ___ यह कैसी सुरभित-सी गहन तंद्रा आवरित किये ले रही है । अपने को, अपने ही से ओझल होते देख रही हूँ। नम्यता, मार्दव, सुगन्ध, संगीत के एकाकार समुद्र में डूबी जा रही हूँ। . • • यह क्या देख रही हूँ ? • • 'मेरी दोनों जुड़ी जंघाओं के गहराव में एक कदलीवन कसमसा रहा है । कदली-स्तम्भों की कई-कई सरणियाँ मेरे दोनों उरुओं में से उग आई हैं-जाने कितनी जाँघे : लम्बे-लम्बे पैरों की एक परम्परा , उनकी उंगलियों में फूटती हजारों उँगलियाँ । उनमें यह कैसी ज्वारिलता है ! इसमें से कोई घनत्व आकार धारण किया चाहता है। सारा उरुदेश पिघल कर नये सिरे से एक पिण्ड में घनीभूत हो रहा है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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