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________________ काल के धार्मिक, दार्शनिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक परिप्रेक्ष्य में, अपने समस्त परिवेश के प्रति सक्रिय और उत्तरदायी एक जिन्दा महावीर अपनी आँखों आगे मुझे चलते दिखायी पड़े। इस तरह अनायास ही अपने युग के इतिहास-विधाता के रूप में महावीर मुझे सुलभ हो गये। अपने काल के धर्म, दर्शन, राज, समाज और अर्थ-क्षेत्रों को वे सम्पूर्ण संचेतना से आत्मसात् करते हैं। एक मरते हुए जगत और युग की पीड़ा, कराह और संघर्ष को वे अपने सीने में धड़कता अनुभव करते हैं। · · ‘सहसा ही मैं प्रतिबुद्ध हुआ कि जो नवीन युग-तीर्थ का प्रवर्तक तीर्थंकर है, जो अपने समम का सूर्य है, वह अपने आसपास के लोक की विकृतियों और वेदनाओं से बेसरोकार कैसे रह सकता है ! अपने समय और विश्व को सम्पूर्ण मानवीय सम्वेदना के साथ वे अपने भीतर जीते और भोगते हैं। . . और तब अनायास ही वे लोक-परित्राता और इतिहास-विधाता की तरह बोलते और वर्तन करते दिखायी पड़ते हैं। अपने युग की चीत्कार और पुकार का मूर्तिमान उत्तर बन कर वे आर्यावर्त की आसेतु-हिमाचल धरती पर विहार करते दिखायी पड़ते हैं। पर उनकी चेतना और उनका व्यक्तित्व इतिहास पर समाप्त नहीं, देश-काल पर खत्म नहीं। वे एक जन्मजात योगी हैं। देश-कालभेदी यौगिक चेतना लेकर ही वे जन्मे हैं। लोक के लिए उनकी संवेदना और सहानुभूति महज मानसिक और प्रासंगिक नहीं, वह प्रज्ञानात्मक और आध्यात्मिक है। प्रासंगिक समस्याओं का समाधान भी वे वस्तुओं के मूल में जा कर, अपने प्रज्ञान के केन्द्र में खोजते हैं। अपने युग की धार्मिक, मानसिक, दार्शनिक, अर्थ-राज-समाजनैतिक वस्तु-स्थिति का वे एक मौलिक विश्लेषण करते हैं, जो कि समस्या को अनायास ही आध्यात्मिक, सार्वभौमिक और सार्वकालिक स्तर पर संक्रान्त कर देता है। · · ·और अचानक ही मैं देखता हूँ, कि मेरे महावीर की वाणी में, हमारे आज के जगत की तमाम समस्याएँ ज्यों की त्यों प्रतिबिम्बित हो उठती हैं। स्पष्ट लग उठता है कि ठीक इस पल के हमारे भारत और विश्व को लक्ष्य करके बोल रहे हैं भगवान महावीर। और जिस अतिक्रान्ति की बात वे करते हैं, ठीक वही हमारे वर्तमान युग की तमाम दुश्चक्र-ग्रस्त समस्याओं को सुलझाने का एकमात्र कारगर उपाय प्रतीत होता है। लेकिन इस अतिक्रान्ति की मूलगामी रोशनी को पाने के लिए और उसे अपने युग के जगत में घटित करने के लिए मेरे महावीर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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