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________________ १५ में ज्यों के त्यों व्यक्त हो उठे हैं। यह प्रतीति मेरे भीतर इतनी प्रबल, अतर्क्य और अनिर्वार है, कि इसके विरोध में आने वाले किसी भी बौद्धिक तर्क के समक्ष मैं महज़ स्तब्ध मौन हो रहता हूँ । उसका किंचित् भी प्रतिकार मुझे तुच्छ और अनावश्यक लगता है । और तो और प्रामाणिक और आर्ष माने जाने वाले परम्परागत शास्त्रों की सीमित बौद्धिक प्रस्थापनाएँ भी यदि इसके विरोध में सामने आयें, तो मैं उनसे बाधित और विचलित नहीं हो सकता। क्योंकि सृजनात्मक चेतना सदा सर्वतोमुखी, संयुक्त ( इंटीग्रल ) और सामग्रिक होती है । वह सारे एकान्त बौद्धिक विधानों से कहीं बहुत अधिक पूर्णता के साथ, किसी भी सत्ता का सम्पूर्ण आकलन करने में समर्थ होती है । सच तो यह है कि अनेकान्त-मूर्ति, साक्षात् सत्ता-स्वरूप महावीर को किसी रचना-धर्मी कवि-कलाकार की अनैकान्तिक सृजन-चेतना ही सर्वांग आकलित और चित्रित करने में समर्थ हो सकती है । . हमारे देश का बौद्धिक और साहित्यिक वर्ग बेहद सीमित, संकीर्णमना और पिछड़ा हुआ है । हमारे आज के तथाकथित आधुनिकतावादी सूफ़यानी (सॉफिस्टिकेटेड) साहित्य - समीक्षकों, और एकान्त स्थूल वस्तुवाद से पूर्वग्रहीत पाठकों के छोटे नजरिये में मेरी उपरोक्त बातें हास्यास्पद भी हो सकती हैं । लेकिन जिस पश्चिम से यह भौतिक वस्तुवाद उधार लेकर हम अपनी आधुनिकतावादी दूकानदारी चला रहे हैं, उस पश्चिम के भौतिक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और साहित्यकार, उस महज इन्द्रिय-गोचरं भौतिक वस्तुवाद को जाने कब से पीछे छोड़ चुके हैं । वे प्रति दिन वस्तु और चेतना के नवीनतर क्षितिजों का अनावरण कर रहे हैं । उनके यहाँ महज इन्द्रिय-मन सीमित वस्तुवादी अवबोधन ( पर्सेप्शन ) और दर्शन अब उन्नीसवीं सदी की चीज हो चुकी है। सच ही यह एक उत्कट व्यंग्य और दयनीय विडम्बना है कि भारत में अपने को अप-टू-डेट समझने की भ्रांति में जी रहे लेखक और विचारक, बीते कल के पश्चिमी नजरियों को दाँतों से पकड़ कर ही, जोरोंशोरों से अपनी आधुनिकता की नुमायश करने में आज भी दिन-रात मशगूल है इसी सिलसिले में एक और भी मुद्दे को स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगाजिसका प्रयोग इस उपन्यास में हुआ है, और जो तथाकथित आधुनिकतावादी की निगाह में आपत्तिजनक और विवादास्पद हो सकता है। आर्ष जैन ग्रन्थों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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