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________________ संघात के फल-स्वरूप वे ज्यों की त्यों हमारे अन्तःकरण में प्रत्यक्ष सजीव हो उठती हैं। इस तरह प्राचीन परम्परागत और आधुनिक मनोविज्ञान, दोनों ही से हम इस सम्भावना पर पहुंचते हैं, कि सहस्राब्दियों पूर्व के व्यक्तियों और घटनाओं को, उनके चरित्रों को हम अपनी तीव्र संवेदनात्मक कल्पना-शक्ति से उनके यथार्थ स्वरूप में आकलित कर सकते हैं। वर्तमान में महावीर की स्मृति से सारा लोकाकाश व्याप्त है। क्योंकि लाखों लोग एकाग्र भाव से उनके जीवन और प्रवचन को याद कर रहे हैं । फिर यह भी है कि महावीर अब केवल अपनी भौतिक-मानसिक सत्ता से सीमित नहीं; उससे परे उनका व्यक्तित्व नित्य-सत्य आत्मिक सत्ता में अक्षुण्ण हो गया है। उनकी सिद्धात्मा में त्रिलोक और त्रिकाल निरन्तर हस्तामलकवत् झलक रहे हैं। उनका ज्ञानशरीर समस्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है। इस प्रकार वे हमारी संकल्प-शक्ति और वैश्विक चेतना को, चहुँ ओर से और भी अधिक सुलभ हो गये हैं। इस वस्तु-स्थिति को समक्ष रख कर सहज ही यह मान्य हो सकता है, कि महावीर की सत्ता से ओतप्रोत आज के लोकाकाश के बीच जब आज मेरे कवि-कलाकार ने अपनी समग्र एकाग्र चेतना से उन्हें स्मरण किया है, और लगातार दो वर्ष के क्षण-क्षण में उन्हीं के ध्यान और संकल्प में वह जिया है, तो कोई आश्चर्य नहीं कि मेरी सृजन-चेतना में उनका वह यथार्थ जीवन और अन्तरंग सांगोपांग मूर्त हो सका हो, जो आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व उन्होंने जिया था। और कोई अजब नहीं कि जो दो या अधिक कल्पित पात्र मैंने रचे हैं, वे महज़ ख्याली फ़ितूर नहीं, बल्कि वास्तविकता में वे तब अस्तित्व में रहे हों, और मैं अपनी एकाग्र सृजनात्मक कल्पना-शक्ति के बल उन्हें पकड़ने में समर्थ हो सका हूँ। तब श्रद्धा की भाषा में यह भी कह सकता हूँ, कि अब जन्म-मरण के चक्र से अतिक्रान्त, मोक्ष या शाश्वती (इटनिटी) में सम्पूर्ण नित्य विद्यमान भगवान महावीर ने स्वयम् संभवतः अपने कवि पर ऐसी कृपा की हो, कि हमारी पृथ्वी पर जिया गया उनका समग्र तीर्थंकर-जीवन, उसके शब्दों में साकार हो उठे। मेरी अत्यन्त निजी आत्मानुभूति ने बारम्बार मुझे यह प्रत्यय कराया है कि मैंने महज अपनी आत्म-परक (सब्जेक्टिव) सनक से ही अपने प्रस्तुत महावीर को नहीं रचा है, बल्कि स्वयम् तद्गत (ऑब्जेक्टिव) महावीर मेरे सृजनोन्मेषित चित्त-तन्त्र के माध्यम से अपनी स्वेच्छा से ही मेरे शब्दों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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