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________________ ३३४ न हुआ। वह सब असह्य लगा : अक्षम्य अपराध प्रतीत हुआ। इन महलों और राज्यों के ऐश्वर्यों की नीवों में जो प्रतिपल अपने जीवनों की आहुतियाँ दे रहे हैं, उनकी विपन्नता, दीनता और आत्महीनता को देख, मुझे स्पष्ट प्रतीति हुई, कि लोक में कुछ समर्थ लोग, अपने बाहुबल और उत्तराधिकार के ज़ोर पर, निरन्तर एक सार्वभौमिक हत्या और हिंसा की सृष्टि कर रहे हैं। कर्म-विपाक से यदि यह वैषम्य है, तो उस ग़लत कर्म-शृंखला को उलटना भी जागृत और चैतन्य मनुष्य का दायित्व है। कोई भी आत्मवान और जागृत व्यक्ति, होश-हवास रहते एक हत्यारी और शोषक जगत-व्यवस्था में सहभागी हो कर, करोड़ों मानवों की सामुदायिक हिंसा के इस व्यापार को कैसे चलने दे सकता है ? · . . 'क्या करूँ माँ, बहुत विवश हो गया हूँ मैं, यहाँ से चले जाने को। धनी-निर्धन, सुखी-दुखी, शोषक-शोषित, पीड़क-पीड़ित के ये भेद, ये दरारें मुझ से सही नहीं जातीं। मेरी नसों में रक्त नहीं, जैसे बिच्छु बह रहे हैं। मेरे तन का अणु-अणु उनके निरन्तर दंशनों से उत्पीड़ित है। लगता है माँ, हजारों-लाखों लोग, जब तक पीढ़ी-दरपीढ़ी बेहाल, निर्धन, मजबूर हैं, लाचारी और आत्महीनता में जी रहे हैं, तब तक इस ऐश्वर्य से मचलते महल में मैं कैसे रहूँ ? तुम्हारा यह सारा वैभव मुझे काटता है, यह मुझे चोरी का लगता है। यह सार्वभौमिक हत्या की खेती का प्रतिफल लगता है। तुम नाराज़ न होना माँ · · · ! क्या करूँ, जब यह सब मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। यह सब सहते हुए जीना अब मेरे वश का नहीं · ·!' ___ 'मान, तेरी इन अनहोनी हठों का अन्त नहीं। जो आज तक कोई न कर सका सृष्टि के इतिहास में, वह तू करेगा? असम्भव को कौन सम्भव कर सका है?' 'असम्भव और महावीर साथ नहीं चल सकते, माँ ! मनुष्य के कोष में से असम्भव शब्द को मैं सदा के लिए निकाल फेंकना चाहता हूँ। सत्ता यदि अनन्तसम्भावी है, तो असम्भव यहाँ कुछ भी नहीं। वह केवल अज्ञानियों और अर्द्धज्ञानियों की, अपनी सीमा से निष्पन्न एक मिथ्या धारणा मात्र है। असम्भवों की लकीरें खींचने वाले तुम्हारे परम्परागत शास्त्र और श्रमण स्थापित स्वार्थों के स्थिति-पोपक हैं। यह असम्भव शब्द उन्हीं का आविष्कार है। - ‘अर्हतों की कैवल्यवाणी को कौन लिपिबद्ध कर सका है। अर्हत् के मुख से असम्भव शब्द उच्चरित नहीं हो सकता। अर्हत् और असम्भव, ये दोनों विरोधी संज्ञाएँ हैं। सर्वसम्भव, सर्वज, तीर्थंकर, असम्भव की मर्यादा पर कैसे अटक सकता है ? · .. ... - एकाएक मैं उठ बैठा, और देखा, माँ प्रस्तरीभूत-सी, पहचान-भूली, भटकी आँखों से मुझे देख रही हैं। बहुत सूना लगा उनका आँचल, और वे निपट लुटी-सी बहुत अनाथ हो आई हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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