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________________ ३ होगा। उनके प्रति अपने को खोल कर, उनके सारे कषाघातों को झेलते हुए, अपने चैतन्य की अव्याबाध अवगाहना में उन्हें विसर्जित कर देना होगा। अपनी देह के रेशे-रेशे को योगाग्नि में तपा कर, गला कर, अपने विशुद्ध द्रव्य में संस्थित होने पर ही निखिल के साथ ऐसी एकाकारिता सम्भव है। . . 'अभी-अभी अन्तहीन नरकाग्नियों में जलते जीवों की यातनाएँ आंखों आगे देखी हैं। अनन्त निगोदिया जीव-राशियों को वेदना तक से आत्म-विस्मृत, अपने ही में खदबदाते, बैचेनी के साथ एक साँस में अठारह बार जनमते-मरते अनुभव किया है। वे सारे जीव मेरी आत्मा में त्राण के लिए चीत्कार कर रहे हैं, आक्रन्द कर रहे हैं · · । माँ, मेरी पीड़ा को समझने को कोशिश करो। . .' 'कहो बेटा, सुन रही हूँ। .. 'जाने कितने जन्मान्तरों में, जाने कितनी योनियों में, कितने ही जीवों से मैंने शत्रुत्व बाँधा होगा। वे सारे जीव अपने बैर का बदला मुझ से लेने को, कषायप्रमत्त होकर निम्नातिनिम्न योनियों में मोहांध भटक रहे हैं। जहाँ-जहाँ भी होंगे वे, अपने कायोत्सर्ग के बल उन्हें अपने पास खींचूंगा। उनके प्रति आत्मार्पण करके, अपनी नग्न काया के अणु-अणु में उनके प्रतिशोधी बैर के सारे प्रहार मौन भाव से सहूँगा। · · 'सहता ही चला जाऊंगा, ताकि वे अपनी समस्त कषाय को मुझ पर उतार कर, उससे मुक्त और निर्वैर हो जायें। पहले अपनी ही आत्मा में, अपने ही निजी वैरियों से, पूर्ण मैत्री और सम्वादिता स्थापित न कर लूं , तब तक निखिल चराचर में मैत्री और सम्वाद का सुख-साम्राज्य कैसे स्थापित किया जा सकता ... . कायोत्सर्ग तो भीतरी बात है न, मानू ? इस बाहर की छत में जाने कब से तेरा कायोत्सर्ग चल तो रहा है। तेरी ध्यान-साधना में आप ही एक दिन, सारे जीव खिंचे चले आयेंगे। है कि नहीं?' .. - 'नहीं' - ‘नहीं माँ, असम्भव ! मुझे स्वयं जीवों के पास जाना होगा। अपने अहम् की सारी ग्रंथियाँ भेद कर, उन्हें सुलभ हो जाना होगा। छोड़ो लोकालोक की जीव-राशियों को : ठीक इस महल से बाहर निकलते ही, जो मानवों की बस्तियाँ हैं, उन्हीं के साथ मैं अभी कोई समत्व और सम्बाद नहीं साध पाया। पिप्ली-कानन की यात्रा के समय, तुम्हारे इस आर्यावर्त की कई ग्राम-बस्तियों में भटका था। कृषकों, कम्मकरों, चांडालों, अंत्यजों की जो जीवन-स्थिति देख आया था, उसके बाद तुम्हारे इस सुख-वैभव से भरे राजमहल में लौटने का मन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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