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पर लेटा, अनन्त नव्य-नूतन सृष्टियाँ रचता रहेगा, और उनके साथ खेलता रहेगा ।...
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'सच ही विचित्र है यह अनुभूति । देख रहा हूँ माँ, सारी चीज़ों का एक ज्ञान - शरीर भी है। उसके भीतर विनाशी और अविनाशी का भेद समाप्त हो जाता है । वहाँ मानो सारी सृष्टि अपनी तमाम सम्भावनाओं के साथ शाश्वत विराजमान है । लग रहा है, जैसे कभी कोई, कुछ खो जाने वाला नहीं है। सभी कुछ वहाँ सुरक्षित, सुप्राप्त है । "अरे यह क्या देख रहा हूँ, इन छह महाकुलाचलों के बीच खुल पड़े हैं कई विशाल सरोवर । पद्म, महापद्म, तेगिच्छ, केसरी, महापुण्डरीक, पुण्डरीक : हर सरोवर में से उत्तीर्ण होता, एक नवीनतर पूर्णतर सरोवर । उनकी जल-प्रभाओं के रंग और सुगंधों की संज्ञायित नहीं किया जा सकता। एक निर्नाम सौन्दर्य-बोध और आनन्द के सिवाय और कुछ शक्य नहीं इस अन्तर्जगत में । प्रवाहों और तरंगों को किस नाम और मूर्ति पर अटकाया जा सकता है ! अद्भुत हैं पदार्थ के ये अन्तर्कक्ष । परमाणु के भीतर पूरे ब्रह्माण्ड की लीला चल रही है । और लो देखो, इन सरोवरों से कितनी सारी महानदियाँ निकल पड़ी हैं। गंगा, सिन्धु, रोहितास्या, हरितकान्ता, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता, रक्तोदा । और इस पद्म सरोवर का ओर-छोर नहीं । एक विशाल छत्र की तरह, पूरे योजन का एक कमल इस पर उत्फुल्ल है । और उसकी कणिका के मंडल में सौरभ और मकरन्द के जाने कितने प्रदेश हैं, महल हैं, जिनमें श्री, ह्री, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी देवियाँ निवास करती हैं । और इस सरोवर के चित्र-विचित्र मणियों से देदीप्यमान तोरण वाले वज्र-मुख से गंगा फूट पड़ी है। हिम- पर्वत के दक्षिण तट पर जिव्हिका नामा यह कोई प्रणाली है, जो गोमुखी और वृषभाकार दिखाई पड़ रही है । इस प्रणाली में गंगा गोश्रृंग का आकार धारण करती हुई, श्री देवी के भवन के आगे गिरी है । और इन सारी नदियों के समुद्र-प्रवेश- तोरणों में दिक्कुमारियों के आवास दिखाई पड़ रहे हैं। दिगन्तों की अगम्य सौन्दर्य - विभा, इनमें देहवती हो कर, स्पृश्य और ग्राह्य हो गई है । कैसा अनिर्वच मार्दव और आश्वासन है, इनके स्पर्श में... !'
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और तेरा स्पर्श इस क्षण कितना प्रगाढ़ हो गया है, मानू । कैसी प्रतीति है, कि मेरे इस स्पर्श में से छूट कर तू कभी कहीं, जा नहीं सकता ।'
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