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________________ पर लेटा, अनन्त नव्य-नूतन सृष्टियाँ रचता रहेगा, और उनके साथ खेलता रहेगा ।... ३२५ 'सच ही विचित्र है यह अनुभूति । देख रहा हूँ माँ, सारी चीज़ों का एक ज्ञान - शरीर भी है। उसके भीतर विनाशी और अविनाशी का भेद समाप्त हो जाता है । वहाँ मानो सारी सृष्टि अपनी तमाम सम्भावनाओं के साथ शाश्वत विराजमान है । लग रहा है, जैसे कभी कोई, कुछ खो जाने वाला नहीं है। सभी कुछ वहाँ सुरक्षित, सुप्राप्त है । "अरे यह क्या देख रहा हूँ, इन छह महाकुलाचलों के बीच खुल पड़े हैं कई विशाल सरोवर । पद्म, महापद्म, तेगिच्छ, केसरी, महापुण्डरीक, पुण्डरीक : हर सरोवर में से उत्तीर्ण होता, एक नवीनतर पूर्णतर सरोवर । उनकी जल-प्रभाओं के रंग और सुगंधों की संज्ञायित नहीं किया जा सकता। एक निर्नाम सौन्दर्य-बोध और आनन्द के सिवाय और कुछ शक्य नहीं इस अन्तर्जगत में । प्रवाहों और तरंगों को किस नाम और मूर्ति पर अटकाया जा सकता है ! अद्भुत हैं पदार्थ के ये अन्तर्कक्ष । परमाणु के भीतर पूरे ब्रह्माण्ड की लीला चल रही है । और लो देखो, इन सरोवरों से कितनी सारी महानदियाँ निकल पड़ी हैं। गंगा, सिन्धु, रोहितास्या, हरितकान्ता, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता, रक्तोदा । और इस पद्म सरोवर का ओर-छोर नहीं । एक विशाल छत्र की तरह, पूरे योजन का एक कमल इस पर उत्फुल्ल है । और उसकी कणिका के मंडल में सौरभ और मकरन्द के जाने कितने प्रदेश हैं, महल हैं, जिनमें श्री, ह्री, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी देवियाँ निवास करती हैं । और इस सरोवर के चित्र-विचित्र मणियों से देदीप्यमान तोरण वाले वज्र-मुख से गंगा फूट पड़ी है। हिम- पर्वत के दक्षिण तट पर जिव्हिका नामा यह कोई प्रणाली है, जो गोमुखी और वृषभाकार दिखाई पड़ रही है । इस प्रणाली में गंगा गोश्रृंग का आकार धारण करती हुई, श्री देवी के भवन के आगे गिरी है । और इन सारी नदियों के समुद्र-प्रवेश- तोरणों में दिक्कुमारियों के आवास दिखाई पड़ रहे हैं। दिगन्तों की अगम्य सौन्दर्य - विभा, इनमें देहवती हो कर, स्पृश्य और ग्राह्य हो गई है । कैसा अनिर्वच मार्दव और आश्वासन है, इनके स्पर्श में... !' .... और तेरा स्पर्श इस क्षण कितना प्रगाढ़ हो गया है, मानू । कैसी प्रतीति है, कि मेरे इस स्पर्श में से छूट कर तू कभी कहीं, जा नहीं सकता ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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