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दुःसह हो जाता है। अपनी माँ की मनोव्यथा के इस दुस्तर समुद्र को मुझे तैर जाना होगा। . .' ___ क्षण भर चुप रह कर मैंने माँ की आँखों के उस अकुल विषाद-सागर में अपने को एकाकी यात्रा करते देखा । एक गहन धुन्ध में मैं खोता ही चला गया। और उसके भीतर से हो जैसे आक्रन्द-सा कर उठा :
'. . 'माँ, सुनो, देखो, सारे लोक को अपने भीतर साकार होते देख रहा हूं। कटि पर दोनों हाथ धर, लोक-पुरुष को पैर फैलाये खड़े देख रहा हूँ। असंख्यात द्वीप-समद्रों से यह आकीर्ण और वलयित है। स्वयम् ही वह अपने को जानने को विकल, बेताब, अविराम अपने ही अनेक पेटालों, और प्रदेशों में यात्रा कर रहा है। मैं हो कर भी वह कोई और है, मुझ से उत्तीर्ण : वह चला जा रहा है, जैसे चाँद और सूरज के डग भरता हुआ। और इस गहराती धुन्ध में मैं नितान्त अकेला, अवरुद्ध और स्तंभित खड़ा रह गया हूँ। मेरे पैर जैसे किसी बादली चट्टान में कीलित हो गये हैं। · · ·और सामने प्रस्तुत हैं ज्वाला की दो पादुकाएँ। उनमें चुनौती है कि उन्हें पहनं, और बढ़ जाऊँ। पर मेरे और उनके बीच, मेरे पैरों की घेर कर, काल का भुजंगम बेशुमार कुण्डल मारे पड़ा है। मैं केवल खड़ा रह सकता हूँ और सामने खुलते दृश्यों को देखने को विवश हूँ। गति के लिए आकुल मेरे पैरों की कसमसाहट असह्य है। · · · मेरे पगों की यह अजगरी साँकल तोड़ो, माँ। मुझ से खड़ा नहीं रहा जा रहा . . .'
'मान तुझे एकाएक यह क्या हो गया ? . . 'आविष्ट की तरह तू यह सब क्या बोल रहा है ! मुझे डर लग रहा है . . . '
'डरो माँ, पूरी डर जाओ। इस भय से भागो नहीं, इसका सामना करो। यह भय ही तो मृत्यु है : इसकी आक्रान्ति को समूची सह लोगी, तो मृत्यु की खन्दक पार हो जायेगी। · · ·हो सके तो देखो, मैं मृत्यु की कराल डाढों में हूँ, और उसे भेद जाने को विवश हूँ। अतलान्तों तक चली गई सुरंगें और सीढ़ियाँ खुलते देख रहा हूँ। · · ·और आखिरी पटल है यह लोक का। · · ·लो, यह आख़िरी सीढ़ी भी टूट गयी। और उसके तल में खुल पड़ी है, सात राजुओं में विस्तृत एक धुन्ध भरी जगती। घड़े में भरे घी की तरह असंख्यात् जीवराशि यहाँ अपने ही में आलोड़ित हो रही है। यह निगोदिया जीवों का लोक है। केवल एकेन्द्रिय, स्पर्श का एक निःसीम पिण्ड मात्र है यह। ये जीव मेरे अपने एक श्वास में अठारह बार जन्म-मरण कर रहे हैं। और मैं इनकी एक अबूझ वेदना मात्र रह गया हूँ। आँखों
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