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________________ ३१९ • देख । टीसती रही है । मेरी छाती में उमड़ते दूध ने उसे बूझा और चीन्हा है रही हूँ, मेरे ही कुमारी हृदय की वह पुकार, तुझ में विराट और अनिवार्य हो उठी है। मैं तो नारी होकर जन्मी थी सो मेरी काया पृथ्वी से परिमित थी । ताकि पृथ्वी को अपने में धारण कर सकूं । लोक की अनाथ आरति को अपने रक्त में आत्मसात् कर सकूं। तुम्हें अपनी देह में, अपने गर्भ में धारण कर जन्म दे सकूं । पर तुझमें तो आकाश को यहाँ अवतीर्ण होना था तो उसे झेलने को स्वयम् समूची पृथ्वी हो कर अपने में समाहित रहने को मैं विवश थी । विवाह की ओर से मेरा जी उन्मन् था, पर समर्पित हो रही उसके प्रति, ताकि मेरे भीतर तेरा द्यु, भू की माटी में सर्वांग साकार हो सके ! 'तुम आज कह रही हो, माँ, पर तुम्हारे भीतर बैठी उस कुमारी की झलक मुझे बार-बार मिली है । तुम्हारे चित्त की वह व्याकुलता ही तो मेरे भीतर महावासना बन कर संक्रांत हुई । सुनो माँ, तुम्हारे ही प्राण की उस पुकार का उत्तर तो मैं खोजने जा रहा हूँ। तब क्या रंच भी तुम मुझ से कहीं छूट या टूट सकोगी ? 'मेरी इस खोज की महायात्रा में तुम मुझे यों देखो, जैसे अपने ही को दूरदूरान्तों में जाते देख रही हो ।' 'अपने किये मुझ कुछ न होगा, मान । एकदम ही आत्महारा और शून्य हो गई हूँ । तुम्हीं मेरी आँखें बन कर मुझे यहाँ खड़ी, और तुम्हारे भीतर जाती देखो । 'दर्पण में नहीं, तुम्हारी आँखों में ही मैंने अपना चेहरा देखा है, और अपनी इयत्ता को पहचाना है, माँ ! तुम मुझे अपनी आँखों का तारा कहती हो, तो क्या तुम्हारी पुतलिया में केवल मैं ही नहीं हूँ ' मोह की तमिस्रा को भी तुम कैसी गहरी ममता से वेधते हो, बेटा ! मानो अपने अगाध प्यार से, मोह को काटने के बजाय, उसे ही मुक्ति में फलित करते चले जाते हो । • फिर भी जाने क्यों एक अँधेरा हमारे बीच घिर-घिर आता है, मैं तुझसे बिछुड़ जाती हूँ । 'अकेली पड़ जाती हूँ !' 'यह वह अन्तिम और गहिरतम अंधेरा है, जिसमें से सवेरा फूटने वाला है, माँ । तुम्हारी उदास आँखों के तटों में उस ऊषा के लाल डोरे झाँक रहे हैं । कितना सुन्दर और भव्य है तुम्हारी आँखों का यह विषाद ! सारे विश्व की अपार करुणा इसमें जैसे घटा बन कर छायी है । ' और तब यहाँ ठहरना एक पल को भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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