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________________ ३११ मैं रह जाऊं या वह रह जाये । ऐसी अद्वैत प्रीति का प्रकाश जब तक नोक में प्रवाहित न हो, मेरा, आपका, वैशाली का या जगत का, किसी का भी त्राण सम्भव नहीं, बापू । जब तक एक भी जीव लोक में सन्तप्त है, तब तक यहाँ की असंख्य जीवराशि, उसके संताप और संत्रास से अछूती नहीं रह सकती। हो सके तो पारस्परिक संताप, संत्रास, हत्या और शोषण की इस दुष्ट शृंखला को, मैं सदा के लिए तोड़ देने आया हूँ । हिंसा के इस आदिम दानव को सदा के लिए समाप्त करके ही, वर्द्धमान चैन ले सकेगा । जब तक मार की इस शृंखला से मैं स्वयं मुक्त न हो जाऊँ, तब तक इसका मारनहार, और जगत का तारनहार अरिहंत मैं नहीं हो सकता। वह हो जाने पर, मैं मोक्ष लाभ करके भी उस मोक्ष से नीचे उतर आऊँगा। जीवन के बीचोंबीच जीवन्मुक्त रह कर अनन्त काल में असत्य, अज्ञान और हिंसा के इस असुर के विरुद्ध लड़ता चला जाऊँगा । इतिहास में सहस्राब्दियों के आरपार यह महान अनुष्ठान चलता रहेगा। महावीर और अहिंसा यहाँ पर्यायवाची हो कर, लोक-हृदय में संक्रमण करेंगे। हिंसा यदि सत्य नहीं, स्वभाव नहीं जीव का और पदार्थ का, तो कोई कारण नहीं, कि समग्र सृष्टि में अहिंसा की पूर्ण सम्वादी कल्याणी जीवन-रचना सम्भव न हो। जो सृष्टि और पदार्थ का मौलिक सत्य है, स्वभाव है, वह उसकी बाह्य रचना में भी सम्पूर्ण प्रकट हो ही सकता है। इसी अनिवार्य सम्भावना और आशा का दूसरा नाम महावीर है। . .' पिता ने जैसे मेरे भीतर सत्ता का एक और अपूर्व आयाम खुलते देखा। विस्मित और प्रश्नायित वे मुझे ताकते रहे। ____ 'अब तक के तीर्थंकरों ने जो नहीं कहा, जो करने में वे असफल रहे, वह तुम करने को कहते हो, बेटा? तब तो वे सारे पूर्वगामी तीर्थंकर मिथ्या हो जायेंगे?' ___ 'अब तक के तीर्थंकरों ने अपने अनन्त कैवल्य में से जो अनन्त देखा, कहा, उसे सान्त श्रुतज्ञानी पूरा ग्रहण ही नहीं कर सकते थे। तब वे उसे कह कैसे सकते थे। अरिहन्तों ने तो अशेष देखा जाना था, जो कथनातीत था। वह केवल ज्ञेय था, बोध्य था, कथ्य नहीं। उनसे मुझ तक, ज्ञान की एक अनाहत धारा चली आ रही है। उसमें जो मेरे भीतर प्रवाहित और प्रकट हो रहा है, वही तो मैं कह रहा हूँ। इस अखण्ड प्रवाह में, मैं उन्हीं का एक अगला प्रकटीकरण हूँ। वे थे कि मैं हूँ, उनसे अभिन्न, उन्हीं का एक और विस्तरण । मैं उन्हीं की एक प्रतिपत्ति हूँ, फलश्रुति हूँ, प्रतिफलना हूँ। ... . . . 'और विगत तीर्थकरों ने जो अहिंसा की वाणी उच्चरित की, उसका प्रतिफलन प्रकट के लोक में चाहे आज लुप्तप्राय दीखे, पर तत्वतः वह ताणी व्यर्थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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