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'यही तो सारी रात अपने से पूछती रही हूँ ! मेरा अणु-अणु इसी प्रश्न से उत्पीड़ित है। 'ओ वेद-पुरुष, प्रकट होकर भी फिर तुम लुप्त हो गये? · .. निखिल चराचर का प्राण हत्यारों के छन यज्ञ में आहुति हो रहा है ! . . 'मा हिंस्याः ' कह कर तुम फिर कहाँ चले गये . . ?' . _ 'शान्त होओ देवांशिनी, ऋषभ तुम्हारे साथ है। जो चाहोगी वही होगा। · · ·पाकशाला में चलो । दोपहर टल रही है। · · भोजन नहीं दोगी आज?'
_ 'भोजन ? · · 'कुरु पांचाल में सहस्रों प्राणियों की निरन्तर आहति हो रही है। - कैसे भोजन करें हम? उन प्राणों को अभय दे सकू, यही तो एकमात्र भोजन आज तुम्हें दे सकती हूँ, आर्य ।:: ‘जीवन भर इस तन की भूख को अन्न का भोजन दिया। क्या वह तृप्त हो सकी ? · · · लगता है आज मेरी भूख में स्वयम् भार्गव प्रकट हुए हैं। वे भोजन से शान्त नहीं होंगे। इस तन के पिण्ड की आहुति पाकर ही वे संतुष्ट होंगे। आज हमें स्वयम् ही, अपना भोजन बन जाना होगा, ऋषभ ! अपने ही से आपको तुष्ट करना होगा। यही तपस् है, यही यज्ञ है। इसी से सोम प्रकट होंगे। कुरु-पांचाल में अहोरात्र जल रही हिंसा की ज्वाला को इसी सोम से शान्त करना होगा।'
'तथास्तु देवि ! • • तो फिर क्या होगी आज की दिनचर्या ?'
'देख सको तो देखो, देवता, नदी-तट के गोचर में कुण्डपुर की सहस्रों गाएँ उन्मन भटक रही हैं। आज वे चारा नहीं चर रहीं, केवल उदास विचर रही हैं। लोक में विश्व-प्राण की सामाग्रिक हत्या हो रही है। उसकी समवेदना से ये तिर्यच पश तक घायल हो गये हैं। पशुत्व तक भोजन से विमुख हो गया है। · · हो सके तो जाकर, आज सारा दिन उन्हीं के प्राणों में अपने प्राण की धरा को एकाकार करो । और क्या कहूँ ?'
• 'चले गये ऋषभ ? जाओ, अपने नाम के अनुरूप ही ऋक और धर्म का आचरण करो। हतप्राण गौएँ वृषभ की खोज में हैं।
संजीवनी उषा पीठ फेर कर चली गयी। • ‘परम सत्य के स्वामी सूर्य भी आज उन्हीं की जामुनी कंचुकी में छुप गये हैं। रह-रह कर बादल छा जाते हैं, उनकी कोरों पर से सविता की सुर्णिम आभा किंचित झाँक कर फिर स्तिमित हो जाती है। नदी के इन बहते जलों में, वनस्पतियों में, हवा और बादलों में, जीवन-मात्र में उन्हीं की ऊष्मा अन्तनिहित है। - अपने पूर्ण और प्रचण्ड प्रताप से प्रकट होओ, सविता! हे भर्ग, गायत्री आज मात्र मन्त्रोच्चार होकर तुष्ट
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