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'यह स्वार्थियों का ज्ञानाभास है, ऋषभ । ब्राह्मण और श्रमण में कोई मौलिक भेद नहीं। एक ही परम चैतन्य की ये दो परस्पर पूरक धाराएं हैं, जो आदिकाल से चली आयी हैं। कलह-प्रिय अज्ञानी और स्वार्थी ही भेद की दृष्टि उत्पन्न करते हैं। ब्राह्मण द्रष्टा है, श्रमण स्रष्टा है। ब्राह्मण ब्रह्म का दर्शन करता है, श्रमण उसका आचरण करता है। दर्शन और आचरण के बीच की खाई जब बहुत बडी हो जाती है, तभी हमारे भीतर के चिद्पुरुष महाश्रमण के रूप में प्रकट होते हैं।
'समझ रहा हूँ, देवी। इस शृंखला को कुछ और स्पष्ट करो।'
'जब विश्व-पुरुष प्रजापति के परमानन्द को ब्राह्मण अज्ञानवश मात्र ऐहिक ऐन्द्रिक मान कर, उस आनन्दाभास की तृप्ति में ही प्रमत्त हो गये, तब वातरशना ऋषभदेव ने प्रकट होकर श्रमणचर्या द्वारा, स्वाधीन चैतन्य के अतीन्द्रिय आनन्द का मार्ग प्रकाशित किया। बार-बार जब ब्रह्मानन्द का मार्ग भ्रष्ट हुआ, तब यथासमय अजित, घोर आंगिरस अरिष्टनेमि, याज्ञवल्क्य और पार्श्व के रूप में परब्रह्म ने प्रकट होकर तपःश्रम द्वारा चिदग्नि को पुनः प्रज्ज्वलित किया। आनन्द के उद्गाता स्वयम् वैदिक ऋषियों ने ही क्या इन अहंतों का जयगान नहीं किया है? - . .'
'और आज के इन क्षत्रिय राजषियों के विषय में क्या कहना चाहती हो, देवा ? कहीं यह क्षत्रियों का ब्राह्मण-द्रोह तो नहीं ?' ___'यह द्रोह नहीं, आर्य ऋषभ । मिथ्यावाद का प्रतिवाद कर, फिर से मौलिक और नित-नव्य सम्वाद को प्रस्थापित करने की प्रक्रिया है। आज जब फिर से आत्म-धर्म का विच्छेद हुआ है, तो अंगिरा और अत्रियों का प्रखर ब्रह्मतेज, क्षात्रतेज बन कर पथ-भ्रष्ट ब्राह्मणत्व के विरुद्ध उठा है। परम शान्त प्रजापति, तप और ज्ञान की वह्निमान तलवार लेकर, हिमाद्रि के शिखर पर विष्णु के रूप में प्रकट हुए हैं। अज्ञानान्धकार का ध्वंस करने के लिए उनके दिगम्बर रोम-रोम में अग्नि रुद्र बन कर फुकार रहे हैं। विलुप्त वेद और भ्रष्ट ब्राह्मणत्व का परित्राण करने के लिए ही, स्वयम् आनन्द-स्वरूप प्रजापति ने क्षात्रतेज धारण किया है। एक ही वेद-पुरुष की दो भुजाएँ हैं ब्राह्मण और श्रमण। उनमें भेद कैसा?'
"फिर भी सुन तो रही हो नन्दा, कुरु-पांचाल में अकुण्ठ भाव से हिंसक सर्वमेध यज्ञ हो रहे हैं ! कहाँ हैं जनमेजय, देवापि, जनक विदेह, याज्ञवल्क्य ? कहां हैं महाश्रमण पावं ?'
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