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'तो तुम स्वयं हुई, और मेरी संगिनी हुई। क्योंकि तुम असंगिनी हो गई ! 'मैं आप्यायित हुआ ।'
'अच्छा, हमें ये बताओ, कब, कहाँ जाओगे ?'
'अभी और यहाँ, जहाँ तुम हो, मैं हूँ सदा । केक्ल मेरे जाने पर ही अब भी तुम्हारी निगाह लगी है ! यह जो आया हूँ, अभी तुम्हारे पास संयुक्त, उसे नहीं देखोगी ?'
'देख रही हूँ वही तो देख रही हूँ । लेकिन प्यार करने के लिए, दुर्लभ रहोगे, तभी तो सम्पूर्ण स्व-लभ हो सकोगे। मैं मोक्ष में नहीं, जीवन की द्वैतिनी लीला में ही तुम्हें, अद्वैत भाव से अपने संग पाना चाहती हूँ। क्या यह सम्भव नहीं ?"
'तथास्तु! अनेकान्त में कुछ भी असम्भव नहीं ।'
और वैनतेयी की आँसुओं से उमड़ती आँखों में मैंने अपने को तैरते देखा : जल-क्रीड़ा करते देखा ।
'लो, ये कवि सोमेश्वर चले आ रहे हैं !
'अरे सोमेश्वर, कहाँ रहे इतने दिन ? याद कर रहा था तुम्हें, कि लो, आ ही गये तुम !
'तुम जब तक याद न करो वर्द्धमान, तब तक तुम्हारे पास कौन आ सकता है ! दिन-दिन दुर्लभ जो होते जा रहे हो ।'
'तो ठीक हो रहा हूँ । यह जो सुलभता है न, यह मुझे सच्चे मिलन में बाधक दीखती है । यह हमें परस्पर को पुरातन और व्यतीत ही मिला पाती है, नूतन और चिरन्तन् नहीं मिलाती । सुलभ नहीं, स्व-लभ हम हो जायें परस्पर, तो मिलन में हमेशा एक तरुणाई और ताज़गी रहे ।'
'तुम जैसे रक्खोगे, वैसे ही तो हमें रहना है । तुम जो मुझे चाहो, वही होना चाहता हूँ । सो चुप और दूर रहता हूँ ।'
'इसी से तो मेरे बहुत पास हो । परिसर में नहीं, अभ्यन्तर में हो। और सुनाओ, क्या ख़बर है ? सुना, इधर कई दिन यात्रा पर रहे ?'
'तुम कहीं टिकने जो नहीं दे रहे । धक्के देते रहते हो, तो यात्रा अनिवार्य हो गई। पहले दक्षिणावर्त के छोर तक गया। फिर पश्चिमी समुद्र के द्वीपों और पार्शव तक भी पहुँच गया। तब उत्तर-पश्चिम के राज्यों और गणतंत्रों में हो लिया ।
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