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'एक दिन आऊँगा तुम्हारे पास । अपने में नितान्त अपनी हो कर रहना । वही महावीर है !
'पत्रोत्तर की रत्न- मंजूषा दोनों हाथों में झेल कर, मणिभद्र ने बार-बार उसे सर-आँखों से लगाया । उसकी आँखें छलछला रही हैं । भूमिष्ठ प्रणिपात कर, बिना मुझे पीठ दिये, पीछे पग चलता हुआ, वह द्वार पार कर ओझल हो गया ।
अनन्य
वर्द्धमान'
रात के तीसरे पहर भवन के सिंहपौर पर रथ लगा । महानायक सिंहभद्र गंगा-शोण के स्कन्धावार पर गये हुए हैं । मामी अकेली मुझे पहुँचाने द्वार पर आयीं । पार्शवों को बारम्बार अकेले हाथों पछाड़ने वाली, हिन्दूकुश के दर्रे की वह सिंहनी, ऐसे रो पड़ेगी, ऐसा तो कभी सोचा नहीं था । अपनी बाहुओं की प्रत्यंचाओं में मुझे बाँध कर, मेरी छाती पर वह फूट पड़ी।
'मुझे समूची निःशस्त्र और सर्वहारा कर दिया तुमने, लाला ! क्या यों पीठ फेर जाने के लिए?'
'भूल गईं वादा, गान्धारी ? मेरे सूरज-युद्ध की एकमात्र साक्षी होने वाली हो कि नहीं तुम ? सिंहनी माँ यदि दूध नहीं पिलायेगी, तो किस बल पर एकाकी यह विश्व युद्ध लडूंगा, मामी ! '
उन्होंने मेरे सारे चेहरे को अपनी छाती में प्रगाढ़ता से समा लिया ।
छूट कर मैंने उनकी चरण-धूलि माथे पर चढ़ा ली ।
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• ब्राह्म मुहूर्त में जब उत्तर - कुण्डपुर के मार्ग पर अपने रथ की रास को कम-कम कर खींच रहा था, तो लगा कि मेरे पीछे जाने कौन एक निःसीम आँचल वल्गा बन कर मेरे जीवन - रथ का सारथ्य कर रहा है ।
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