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________________ २७५ कहती वे रो आईं। उनकी गोद में क्षणक रक्तमोह की अगाधता का तीव्र अनुभव पाया। · · · फिर धन, दत्तभद्र, उपेन्द्र, सुदत्त, सुकुंभोज, अकंपन, सुपतंग, प्रभंजन और प्रभास मामाओं ने मुझे घेरकर जाने कितना प्रश्न-कौतूहल किया। पकड़ कर बैठ गये मुझे, कि नहीं, अब कहीं नहीं जाने देंगे मुझे। प्यार की बादाम-गिरियाँ ले कर, मोह के छिलके उतार फेंकने की कला अवगत हो गई है, इसी से रम कर भी चाहे जब विरम जाना मेरे लिए सहज हो गया है। एक शून्य है भीतर, जिस में सबको अवकाश है, तो स्वजनों को भी है ही। सो निर्बाध इन सब में खेला, और निकलता चला गया। पिता एक ऐसी आनन्द-वेदना में खोये और स्तब्ध थे, कि बस मेरा मुँह जोहते रहे : बोले कुछ नहीं। चेटकराज ने इतना ही कहा : 'तुमने तो हम सब को निर्वस्त्र और निःशस्त्र कर दिया है, बेटा। प्रश्न निःशेष हो गया है : हम निरुत्तर हैं। पर तुम तो क्षितिज से बोल रहे हो; आकाश हो कि धरती हो, समझ में नहीं आता। हमारी बुनियादें चूर-चूर हो गई हैं। और तुम हो कि कहीं से पकड़ाई में नहीं आते। जनगण तो वस्तु-स्थिति भूल कर तुम्हारी मोहिनी से पागल हो गया है। पर दायित्व जिनके कन्धों पर है, वे तुम्हारे ध्रुव से टकरा कर बेधरती हो गये हैं। क्या करना होगा, समझ में नहीं आता। मेरी तो बुद्धि गुम हो गई है।' __'करना कुछ नहीं होगा, तात, अब आपको सिर्फ़ देखते रहना है। तब जो करने को है, वह मुझ से आपोआप होगा ही। चीज़ों को अपने पर ही छोड़ दीजिये, और उन्हें होने दीजिये। क्या आप सबके किये अब तक कुछ हुआ है, आपका मनचाहा ? • • “फिर चिन्ता किस बात की? मुझ पर आपको श्रद्धा हो, तो देखते रहिये यह खेल। मैं तो बुनियादों में खेलता हूँ, मैदानों में नहीं। जीर्ण बुनियादें यदि टूट गई हैं, तो जानिये कि मेरा पहला मोर्चा सफल हुआ; आगे के खेल में मैं न भी दीखं , तो नयी बुनियादें पड़ते और भवन उठते तो आप देख ही लेंगे। और क्षितिज यदि हूँ आपकी निगाह में, तो ओझल नहीं हो सकता। कभी उस पर सूर्योदय हो ही सकता है। इतना ही जानें, कि क्षितिज को पकड़ और बाँध कर नहीं रक्खा जा सकता। क्योंकि वह अनन्त है। . .' ___· · ·चलते हुए बापू ने बताया कि यहाँ कुछ परिषदों के लिए वे ठहरेंगे, मैं चाहूँ तो जा सकता हूँ। फिर आ कर मातामही के चरण छुए और बिदा चाही : कि आज ही रात के शेष प्रहर में प्रस्थान कर जाऊँगा। उनके आँसू अविराम बह रहे थे, और वे मुझ में विराम खोजती-सी बोली : ___... कितना समझाया, पर चंदन नहीं रुकी, बेटा! जाने कहाँ चली गईं। कल से रूठी बैठी है, बोली कि : 'नहीं, मुझे किसी से नहीं मिलना है !' संथागार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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