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'देवी चन्दनबाला क्या यहीं पर हैं ?'
'वे कब कहाँ होती हैं, प्रभु, कौन जाने। वह राजमाता और महाराज तक को पता नहीं रहता ।'
'अच्छा भन्ते प्रतिहारी, ठीक समय पर पहुँचूँगा । महाराज से कह देना ।' प्रणाम निवेदन करके प्रतिहारी चला गया । भौंचक्की-सी देखती रोहिणी
बोली :
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भन्ते प्रतिहारी ! 'तुम्हारे लिए तो, लगता है, सभी भन्ते हो गये हैं, वर्द्धमान् !'
'अभन्ते कहीं कोई दीखता ही नहीं, क्या करूँ !'
'दास-दासी तो गान्धार में, हमने भी मनुष्य की सन्तानों को नहीं रहने दिया है। पर जन-जन और कण-कण में तुम्हारा देव बसा है, यह नया देखा और सीखा, आयुष्यमान् ! '
'परस्पर एक-दूसरे को हम देव हो जायें, तो सोचो मामी, सारी समस्याओं का समाधान आपो-आप हो जाये ' ·!'
'तुम्हें पा कर मैं आप्यायित हुई, देवांशी वर्द्धमान् ! '
'और सहसा ही मैं उठ खड़ा हुआ । सिंह मामा बोले :
'वैशाली' के राजमार्गों पर निकल सकोगे, आयुष्यमान् ? दर्शनाकुल जनगण के उल्लास का ज्वार उपद्रव तक खड़ा कर सकता है ।'
'मुकुट-कुंडल तो मैं समर्पित कर आया, मामा । बिथुरे बालों, और उड़ते उत्तरीय से स्वयं अपना रथ हाँकते, मुझ अकिंचन को वैभव-नगरी वैशाली में कौन पहचानेगा ? और फिर प्रवाहों पर छलाँग मार कर, ग़ायब हो जाना मुझे आता है, मामा ! '
' कक्ष - देहरी पर खड़ी रोहिणी देखती रह गई । छूटे हुए तीर को पकड़ कर नहीं लौटाया जा सकता, यह वीरांगना रोहिणी से अधिक कौन जान सकता है । पार्शव के शूरमाओं को अपने तीरों पर तौलने वाली यह लड़की भीतर इतनी तरल भी हो सकती है, कल्पना में नहीं आ सकता था ।
• रत्नगर्भा वसुन्धरा का हर सम्भव वैभव चेटकराज के महालय में देखा । पर उस सब के बीच आकाश की तरह सहज व्याप्त, फिर भी निर्लिप्त उस राजपुरुष को देख मेरी आँखें श्रद्धा से भीनी हो आईं । मातामही सुभद्रा उनकी यथार्थ अर्द्धांगिनी दीखीं । मुझे सामने पा कर गोदी में भरने तक को वे ललक आईं : "जुगजुग जियो मेरे लाल, चिरकाल यह धरती तुम्हारा यशोगान करे !" कहती
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