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'मान, बहुत कुछ सुना था तुम्हारे विषय में। पर जो देखा, तो मेरी सारी कल्पनाएँ छोटी पड़ गईं। लगा कि तुम्हीं को तो जाने कब से खोज रही थी। .. मेरी सारी धनुर्विद्या को तुमने व्यर्थ कर दिया। • जी चाहता है, तुम से हारती ही चली जाऊँ !' ___'तो अन्तिम जीत तुम्हारी रही, मामी। अन्तिम हार का सुख नहीं दोगी मुझे? · . .'
मामी की आँखें झुक गईं। वे चुपचाप मेरे बहुत पास आ कर बैठ गईं, और मेरे बालों के छल्लों को उगलियों से दुलराती रहीं। और अधिक बोल उन्हें नहीं भाया ।
सहसा ही मामा सिंहभद्र आये। मैंने उठ कर विनय किया; वे मुझे भुजाओं में भर मेरी पीठ सहलाते रहे। फिर बैठते हुए बोले :
'आयुष्यमान्, तुमने समस्त जम्बू द्वीप को ज्वालामुखी पर खड़ा कर दिया है।'
'ज्वालामुखी पर तो हम सब बैठे ही हैं, मामा ! मैंने केवल उसे नग्न कर दिया है। ताकि हमें अपनी असली स्थिति का भान हो जाये।'
'वर्द्धन्, गण-राजन्यों की भृकुटियाँ तन गई हैं, वे आपे में नहीं हैं। पर वैशाली का जनगण तो पागल होकर जैसे विजयोन्माद में झूम रहा है। युद्ध और संकट का मानो उसे भान ही नहीं रह गया है।'
'तो वैशाली में मेरा जन्म लेना सार्थक हुआ। यदि भीतर का बैरी बिसर जाये, तो बाहर तो हर कदम पर जीत जयमाला लिये खड़ी है। प्रसन्न हूँ कि मेरे कल्याण-राज्य की नींव लोक-हृदय में पड़ गई।'
'लेकिन आयुष्यमान् . . .'
'लेकिन का तो अन्त नहीं, महानायक ! वह सुन कर क्या करूँगा। विकल्प नहीं, विस्मरण चाहिये। भीतर का स्वधर्म सीधा कर्म हो कर सामने आये। धर्म और कर्म के बीच विकल्प की खन्दकें तो अनादिकाल से पड़ी हैं, और उनमें इतिहास उलझता चला गया है। शुद्ध और निर्विकल्प चेतना, जो सहज ही क्रिया होती चली जाये, बस केवल वह चाहिये।
'पर तुम्हारे इस निगूढ़ अध्यात्म को कितने लोग समझेंगे, वर्द्धमान् ?'
'वैशाली के सारे जनगण ने बिन समझे ही तो बूझ ली मेरी बात। तुम्हीं ने तो अभी साक्षी दी है, मामा । विकल्प उनके मन में है, जो शासन की मूर्धा पर हैं।
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