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जीवन-रथ की वल्गा
• • गई रात सोना नहीं हो सका है। ऐसा जागा हूँ, कि सोना इस जीवन में अब शायद ही सम्भव हो। ___परिषद् से लौट कर कल पूर्वाह्न में रोहिणी मामी ने सूचना दी थी कि महाराज सिद्धार्थ चेटकराज के महालय में ठहरे हैं। सिंह मामा भी सीधे उधर ही चले गये थे और अब तक नहीं लौटे हैं। पता चला है कि गण-शासन-समिति की बैठकें कल सारा दिन और अबेर रात तक चलती रही हैं। वैशाली में भूकम्प आया है, और संथागार की बुनियादें डोल रही हैं। __ परिषद् के उपरान्त शब्द मुझ में शेष नहीं रहा था। मामी ने मुझे समझा और वे चुपचाप मुझे निहारती मेरी परिचर्या करती रहीं। पूर्वाह्न भोजन पर विविध व्यंजनों का जो विशाल थाल सामने आया, उसे देख कर ही एक अनोखी तृप्ति का अनुभव हुआ। कपिशा के कुछ द्राक्ष और एक कटोरी क्षीरान का प्राशन कर मैंने हाथ खींच लिया। मामी अचरज और अनुरोध से कातर हो आईं। उनके ताम्रगौर चेहरे पर एक जलिमा-सी छा गई। पर मेरी सस्मित आँखों को देख, उनका बोल न खुल पाया। कण्ठावरुद्ध और प्रश्नायित वे मुझे मूर्तिवत् ताकती रह गईं।
· · विश्राम के समय वे मेरे शयनागार में पीछे-पीछे चली आईं। मेरे शैया में लेटने पर, समीप ही बैठ गईं। मेरी आँखें सहज ही मुंद गईं। प्रत्यंचा के कषाघात से सुकठिन हो आई एक कोमल हथेली मेरे ललाट पर क्षणक टिकी रही, और जाने कब मेरी तहों में लीन हो गयी। जैसे बाहर कोई हथेली अब शेष नहीं रही थी।
अब सवेरे तैयार हो कर बाहर आया हूँ तो तन फूल-सा हलका है, और मन शरद के इस निरभ्र आकाश की तरह ही निर्मल है। सारा अन्तर-बाह्य मानो एक गहन नीलिमा में तैर रहा है। ___ रोहिणी मामी मुस्कुराते मुकुल-सी आईं, और मुझे अपने कक्ष में लिवा ले गईं :
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