________________
२६०
रहे जन-पारावार पर उछाल दिया। फिर पास ही अनुगत खड़े अपने सारथी गारुड़ के मस्तक पर एक जलांजुलि ढाल दी, और एक और जलांजुलि भर कर उसके पग पखार दिये। गांधारी आल्हाद से स्तब्ध देखती रह गई । स्वागतार्थी गणराजन्यों की भुकुटियाँ तन आईं।
और पीछे सहस्र गुने उल्लास की गर्जना लक्ष-लक्ष गण-कण्ठों से बारम्बार गूंज उठी।
'लिच्छवियों का गण-सम्राट अनन्तों में जयवन्त हो !' मैंने कलश रोहिणी के हाथो में थमाते हुए कहा :
'इन्द्रप्रस्थ के राजसूय यज्ञ में वासुदेव कृष्ण ने द्वार पर, आगत अतिथियों का पाद-प्रक्षालन किया था। आज वैशाली में मेरा भी राजसूय यज्ञ सम्पन्न हुआ, मामी ! • • “आज मंमल-पुष्करिणी के चिर बन्दी जल अपने जनगण का अभिषेक कर के मुक्त हुए। चाहो तो, मामी, इस मुक्त जल-तत्व से अपने दोहित्र का अभिषेक करो !'
मामी ने कई-कई अँजुलियाँ भर वे सुगन्ध-जल मेरी आचड़ देह पर बरसाये। भाल पर तिलक कर के, उस पर हीरक-अक्षत लगाये। सर झुका कर मैंने उनकी जयमाला धारण की।
फिर आगे-आगे चलती हुई वे मुझे सभागार में ले चलीं। नौ सौ-निन्यानवे कुल-राजन्यों, सामन्तों, श्रेष्ठियों, नागरिकों से सभागार खचाखच भरा है। मत्स्य देश के नील-श्वेत मर्मर पाषाणों से निर्मित, बेशुमार स्वर्ण-खचित स्तम्भिकाओं से मंडित, इस भव्य भवन का शिल्प-वैभव विस्मयकारी है। इसकी दीवारों पर चहुँ ओर आर्य शलाका-पुरुषों और तीर्थंकरों की जीवन-लीलाएँ चित्रित हैं।
मेरे प्रवेश करते ही समस्त परिषद् में एक मुग्ध और अलौकिक निःशब्दता व्याप गई। सभागार के शीर्ष पर, एक विशाल मर्मर वेदी के मध्य स्फटिक की भव्य गन्धकुटी आसीन है। उसके सवोपरि देवालय में, माणिक्य के विशद कमलासन पर भगवान वृषभदेव का एक भव्य मनोज्ञ बिम्ब विराजमान है। वेदी पर चढ़ते ही मैंने उसके पाद-प्रान्त में साष्टांग प्रणिपात किया। उसके एक ओर के स्वर्णिम भद्रासन पर गणपति चेटकराज आसीन हुए। · ·और मैंने पाया कि, मैं सहसा ही गन्धकुटी के अन्तिम सोपान पर एक जानू मोड़, दूसरा जानू खड़ा कर, शार्दूल मुद्रा में बैठ गया हूँ। और अपने लिए बिछे सुवर्ण-सिंहासन की पीठिका पर मैंने अपनी एक बाँह पसार दी है। परिषद् में प्रत्याशा और विभोरता का एक अखण्ड मौन व्याप गया है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org