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धमकियों तले साकेत में निर्वीर्य विलास की रातें गुज़ार रहा है। हर राजा और रानी की आलिंगन में बद्ध छातियों के बीच प्यार नहीं, शुद्ध वासना तक नहीं, सुवर्ण है, साम्राज्य है, बलात्कार है। श्रावस्ती के अनाथ पिण्डक और मृगार जैसे श्रेष्ठियों की सुवर्ण - राशि समान रूप से ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज को खरीद कर अपने तहखानों में रक्खे हुए है ।
ये श्रेष्टी, स्वतन्त्र आत्मधर्म के प्रवक्ता और मुक्ति-मार्ग के साधक श्रमणों और परिव्राजकों को आराम, चैत्य और मठ दान में दे कर, उनके परम कृपापात्र बने हुए हैं । राजुल्ले अपनी राज्य और सम्पदा - लिप्सा की तृप्ति के लिए व्यवसायी ब्राह्मण याजनिकों से विराट् खर्चीले यज्ञ करवाते हैं । और दक्षिणा में ब्राह्मणों को बेशुमार सुवर्ण रौप्य, सुन्दरी दासियाँ, अन्न-वस्त्र और गोधन दान करते हैं । उसी के बल पर ब्राह्मण प्रमत्त हो उठे हैं। आर्यावर्त के सभी प्रधान राजनगरों में चल रहे दासी- पण्य इन्हीं वणिक ब्राह्मणों की कृपा से फलफूल रहे हैं । कुल मिला कर, आज प्रभुता वाणिज्य की है, और वणिक के साथ उसमें साझीदारी करने को ब्राह्मण, क्षत्रिय, श्रमण और सन्त तक एक गहरे षड्यंत्र के दुश्चक्र में फँसे हुए हैं ।
शूद्र, चाण्डाल और दास वर्ग, इन कहलाते उच्च वर्णों की वाणिज्य-संधि के फौलादी पंजे तले कुचले जा कर अमानुषिक शोषण, आघात और अपमान के नरक में जी रहे हैं । दूब की भी दया से एक दिन जो आदि ब्राह्मण द्रवित हो उठा था, उसके वंशज को मैंने कल शाम, मोक्ष के अधिकारी स्वतन्त्र मनुज के कानों में उबलता सीसा ढालते देखा, क्योंकि वह कुलजात चाण्डाल था, किन्तु उसमें औचक ही ब्रह्म-पिपासा जाग उठी थी, और उसने वरेण्य सविता के मंत्र - श्रवण का अपराध किया था ।
'नहीं, इस काम - साम्राज्य में अब मेरा ठहरना नहीं हो सकेगा । पर अपनी मुक्ति के लिए इससे भागूंगा नहीं, इसे बदल कर ही चैन लूँगा । इससे पराजय और पलायन महावीर को स्वीकार नहीं । मैं अपने ज्ञान, तप और तेज की अग्नि से इस वासना - राज्य के अनादिकालीन बीजों और मूलों तक को जलाकर भस्म कर दूँगा । उन बीजों और मूलों के अगम्य अन्धकारों में उतरने के लिए, शायद मुझे दीर्घ और दुर्दान्त तपश्चर्या करनी पड़े। अपनी इन वज्र कही जाती हड्डियों तक को गला देना पड़े ।
'नहीं, नहीं ठहर सकूंगा अब और इस 'नन्द्यावर्त' में: इसकी दिगन्त - वाहिनी रत्निम छतों और वातायनों पर । जिन दिशाओं पर ये देखते हैं, उन्हें मैं अपने इस तन पर ही धारण कर लूँगा । जाने-अनजाने यह महल भी तो उसी
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