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________________ २२९ . मुक्त हो कर वह चाण्डाल एकाएक सचेतन होता आया । सुगबुगाता-सा चारों ओर देखने लगा। उसके ओठों से अस्फुट मंत्रोच्चार हो रहा था : 'ॐ णमो अरिहंताणं!' और उसकी त्रास से मुक्त, अश्रु-कातर लाल आँखें किसी को खोज रही थीं। . . . ___ मुझ अजनवी की ओर कई निगाहें लगी थीं : पृच्छा की फुसफुसाहट चारों ओर थी। भूदेवों के आखेटित उस मनुज की अश्रु-सजल दृष्टि मेरी आँखों से मिली, कि अन्तर-मुहतं मात्र में, मैं वहाँ से मानो अन्तर्धान हो गया। 'घोड़े पर छलाँग भरते हुए मन ही मन फूटा : मनुष्य को मनुष्य द्वारा धर्म के नाम पर यों निर्दलित होने और अपनी मौत मरने को छोड़ कर, क्या, मैं अपनी वैयक्तिक मुक्ति के मार्ग पर निर्बाध आरूढ़ हो सकूँगा?. . . 'नहीं, यह मेरे वश का नहीं है। कोटि-कोटि सिद्धों और योगियों ने परापूर्वकाल में, सब की ओर से पीठ फेर कर, भले ही अपनी मुक्ति उपलब्ध कर ली हो, महावीर से यह नहीं हो सकेगा। . . ___. देखता हूँ, पथभ्रष्ट ब्राह्मणत्व ने आर्य ऋषियों और ज्योतिर्धरों के सर्वपरित्राता धर्म को रसातल में पहुंचा दिया है। भगवान ऋषभदेव ने वर्णाश्रम- धर्म की स्थापना व्यक्तियों के स्वभाव के आधार पर की थी। यानी मूलतः वह वस्तु-धर्म पर आधारित थी । जिसमें स्वभाव से क्षात्रतेज हो, वह प्रजा का संरक्षण और शासन करे। जो धरती से जुड़ा हो, उसे जोते और उससे उपजाये, वह कृषि-कर्म करके प्रजा का पालन-पोषण करे। जो स्वभाव से समर्पित और आज्ञाकारी हो, वह प्रजा का सेवक हो कर रहे। इस प्रकार कर्मयुग के आद्य . तीर्थंकर ने वृत्तियों के अनुसार व्यक्तियों को विशिष्ट कर्मों पर नियोजित किया था। यह नियोजन अन्तिम और प्रति-बन्धक नहीं था। यदि विकास के साथ व्यक्ति की वृत्तियों में परिवर्तन हो, तो वह तदनुसार अपना कर्म बदलकर, अन्य वर्ण में उत्क्रान्त हो जाये । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का विभाजन उन्होंने इस तरह स्वाभाविक वृत्ति और प्रवृत्ति पर आधारित किया था। और स्वभावगत विकास की राह सबको उन्नत और उत्क्रान्त होने की छूट उन्होंने दी थी। · · · उनके पुत्र राजर्षि भरत चक्रवर्ती, जन्मजात योगी और ज्ञानी थे। उन्होंने एक दिन देखा कि एक व्यक्ति उनके पास आने को, राह में उगी दूब को बचा कर, चलने में तल्लीन है। राजर्षि सर्वात्मभाव से भावित हो उठे। उन्हें प्रतीति हुई कि यह व्यक्ति प्रतिपल 'सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्' के भाव में जीता है। स्वभाव से ही इसकी चर्या ब्रह्म में है : यह निखिल चराचर भूतों में ब्रह्म देखता है। और नन्हीं दूव का भी जी नहीं दुखाना चाहता। तब भरतेश्वर ने कहा : शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय से भी ऊपर यह ब्राह्मण है। · · ·और इस प्रकार सर्वकाल ब्रह्म में ही चर्या करने वाले परिपूर्ण सम्वेदनशील ब्रह्मज्ञानियों की एक श्रेणि उन्होंने स्थापित की। वही लोक में ब्राह्मण कहलाये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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