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________________ २२८ और मेरा घोड़ा ठीक उस चीत्कार की दिशा में एक वज्र - बाण की तरह मुझे लिये जा रहा था । एकाएक वह थमा, कि वह चीत्कार खामोश हो गई । कुछ ही दूर पर एक गाँव के आँगन में भारी भीड़ के बीच मशालें उठी हुई थीं । उतर कर मेदनी को चीरता हुआ जब घटना स्थल पर पहुँचा, तो देखा कि दीनमलिन वेश में एक अधेड़ मनुष्य बेहोश धरती पर पड़ा है। कुछ लोग उसकी नाड़ियाँ और हृदय गति टटोल रहे हैं । और मानुष-मांस के जलने की एक तीव्र चिरायंध गन्ध वातावरण में घुटन पैदा कर रही है । 'पृच्छा करने पर पता चला कि एक श्रोत्रिय ब्राह्मण देवता नदी तट पर वेद-मंत्रों का उच्चार करते हुए सन्ध्या - वन्दन कर रहे थे । जरा दूर पर जा रहा यह चाण्डाल मन्त्र-ध्वनि सुन कर ठिठक गया। ठिटक कर सुनता रहा । ब्राह्मणदेवता उसे देख कर क्रोध से तिलमिला उठे । इस पामर चाण्डाल की यह हिमाक़त, कि वेद-मंत्र सुनने को खड़ा रह गया ? गायत्री के सविता को अपावन कर दिया इसने अपनी शुद्र काया में उन्हें ग्रहण करके । 1 भू-देवता मुक्के और लातें मारते-मारते उस चाण्डाल को गाँव में घसीट लाये । विपल मात्र में सारे श्रोत्रिय पुरोहित एकत्र हो गये । हाय हाय, अन्त्य ने भर्ग देवता को अपने कर्ण- रन्ध्र में ग्रहण कर लिया । घोर पाप किया है इसने ! पहले तो सब ने तड़ातड़ लात घूसे मार कर उसे अधमरा कर दिया । जितनी ही उसने अधिक क्षमा माँगी, घूसों की बौछार प्रबलतर होती गई । तब इस पाप के निवारण के लिए याजकों ने, 'शतपथ ब्राह्मण' के विधान के अनुसार सीसा पिघला कर, वह खौलता द्रव धातु उसके दोनों कानों में भर दिया, ताकि भविष्य में कोई अन्य शूद्र और चाण्डाल, वेद-मंत्र सुनने का दुःसाहस न करे ।' जिस समय मैं पहुँचा, असह यंत्रणा से चीखता-चिल्लाता वह मनुज-पुत्र अचेत हो चुका था, और उसे देखने और छूने के पाप से उबरने को उसके दण्डदाता श्रोत्रिय, गंगा स्नान को पलायन कर चुके थे । वेदना से विकल होने के बजाय, यह दृश्य देखकर, मैं स्तब्ध और विश्रब्ध हो रहा । वह उबलता हुआ सीसा जैसे मेरी नाड़ियों और हृदय की धमनियों में बहता चला आया । मैंने अपनी जगह पर ही अचल खड़े रह कर, अचेत पड़े उस मनुष्य के जड़ और पीड़क धातु से अवरुद्ध कानों में, नीरव उच्छवास से मंत्रोच्चार किया : 'ॐ णमो अरिहंताणं! ॐ णमो अरिहंताणं ! ॐ णमो अरिहंताणं ! '... और विपल मात्र में ही, जैसे सीसा फिर गल-गल कर उसके कानों से बाहर आने लगा | वेदना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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