SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२१ एक विफल प्रयोग सिद्ध हुआ हैं । भेद की इस पाखण्डी दीवार का पर्दाफाश करके, मैं इसे सदा के लिए ध्वस्त कर देना चाहता हूँ। - वस्तु-सत्य दो नहीं, महाराज, एक ही है। धर्म दो नहीं, पितृदेव, एक ही है। सम्यक्त्व दो नहीं, एक ही है । सम्यक्त्व एकमेव है, भन्ते, एकमेवाद्वितीयम् है ।' ___ पर हमारे श्रमण भगवंत तो आज भी इस द्विविध धर्म-मार्ग का उपदेश कर रहे हैं, बेटा । क्या तुम उसे मिथ्या कहोगे ?' 'श्रमण भगवंत क्या कहते हैं, मुझे नहीं मालूम । पर मुझे सम्मेद-शिखर के चूड़ान्त से भगवान पार्श्वनाथ की धर्मवाणी स्पष्ट सुनाई पड़ रही है । या तो सम्यक्-दर्शन है, या फिर मिथ्या-दर्शन । बीच में कोई व्यवहार-सम्यक्दर्शन जैसी चीज़ ठहर नहीं पाती। उसे ठहराया गया, तो वह पाप और पाखण्ड की जनेत्री सिद्ध हुई । असत्य, हिंसा, चोरी, परिग्रह और व्यभिचार उसकी ओट धर्म की सुन्दर वेशभूषा में सज कर प्रकट हुए। लोक में यह मिथ्यात्व सिद्ध हो चुका है । इस भेद के चलते, धर्म एक निर्जीव और दिखावटी श्रावकाचार हो कर रह गया है। मात्र एक रूढी-निर्वाह । अपने बाद के दूसरे मनुष्य या जीव के साथ हमारा कोई सम्वेदनात्मक, जीवंत सरोकार नहीं। कहाँ है हमारे भीतर, मानव मात्र और प्राणि मात्र के प्रति कोई ज्वलन्त सहानुभूति, अनुकम्पा, मैत्री, करुणा? कहाँ है हमारे भीतर सर्व के प्रति कोई सक्रिय आत्मोपम भाव । हम श्रावकाचार के नाम पर केवल सूक्ष्म एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की थोथी दया पालते हैं । हम पानी को छान कर पीते हैं; मच्छर तक को नहीं मारते । सूक्ष्म निगोदिया जीवों तक की रक्षा के रूढी-प्रचलित जतन करते हैं । पर राज्य और सम्पत्ति के उपार्जन और संग्रह के लिए अनर्गल भाव से, लक्ष-लक्ष मानवों का शोषण करने चले जाते हैं। आत्म-रक्षा के व्यवहार धर्म के नाम पर हम सहस्रों मानवों को तलवार के घाट उतार सकते हैं । पर क्या उससे सच्ची आत्म-रक्षा सम्भव होती है ?' 'पर वर्द्धमान, इस तरह तो जगत में अस्तित्व धारण असम्भव हो जायेगा। महाव्रती मुनि के लिए तो यह एकान्त निश्चय और सर्वत्याग का मार्ग उपयुक्त है । पर अणुव्रती श्रावकों और गृहस्थों के लिए तो अरिहन्तों ने, आत्मरक्षा के हेतु शस्त्र उठाने को धर्म ही कहा है न । तीर्थंकरों और चक्रवतियों तक ने आत्मरक्षार्थ और लोक-रक्षार्थ, अत्याचारियों के विरुद्ध शस्त्र उठाया। क्या राजयोगीश्वर भरत और कर्मयोगीश्वर वासुदेव कृष्ण ने अपने चक्र से बलात्कारियों और अत्याचारियों का संहार नहीं किया ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy