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________________ २१४ शयन करने आती हैं। उसकी मंदिर चूड़ाओं के चिन्तामणि- दीपों से आसमुद्र पृथ्वी आलोकित है । उसके राजन्यों और धनकुबेरों के कोषागारों में वसुन्धरा के सारभूत सुवर्ण-रत्नों की राशियाँ लोट रही हैं। उसके चैत्य -काननों में निरन्तर श्रमणों की धर्मवाणी प्रवाहित है । उसके लोक- हृदय पर अनुत्तर सुन्दरी आम्रपाली शासन करती है । महानायक सिंहभद्र और आचार्य महाली जैसे महाधनुर्धरों के दिगन्तवेधी तीर उसके संरक्षक हैं । वह संसार में, सर्वतंत्र स्वतंत्र गणतंत्र के रूप में सर्वोपरि विख्यात है । और उसके संथागार में राज - सिंहासन नहीं, त्रैलोक्येश्वर जिनेन्द्र भगवान का सर्वजयी सिंहासन बिछा है । समकालीन विश्व की चूड़ामणि नगरी है वैशाली, महाराज । उसका अस्तित्व खतरे में है, बात समझ में नहीं आती, भन्ते मातामह ! और मुझ जैसा अनजान अकिंचन उसका त्राण करें ? विचित्र लगता है, राजन् ! ' 'वर्द्धमान, वैशाली की यह अप्रतिम समृद्धि और उसकी स्वतंत्र सत्ता ही तो आज सारे आर्यावर्त के राजुल्लों की आँखों में खटक रही है । मगध सम्राट बिंबिसार श्रेणिक ताम्रलिप्ति से पार्शव देश तक एक महासाम्राज्य स्थापित करने का सपना देख रहे हैं । चिरकाल की अजेय वैशाली ही उनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा है । वैशाली जय हो जाये, तो फिर आर्यावर्त के अन्य सारे राजतंत्र और गणतंत्र उसे अपनी मुट्ठी में दीखते हैं ।' ' पर अजेय शक्तिशाली वैशाली को भय किसलिए ? ' 'सदा आतंक और युद्ध की ललकारों तले जीना भयानक और खतरनाक ही कहा जा सकता है, बेटा ? भेड़िये का भरोसा क्या ? कब कहाँ से टूट पड़े ! 'सम्राट बिम्बिसार तो आपके जामाता हैं, भन्ते तात ! और मेरी विश्वमोहिनी मौसी चलना, सुनता हूँ, उनके हृदय - राज्य पर एकतंत्र शासन करती हैं। आपको अपनी ऐसी समर्थ बेटी का भी कोई सहारा नहीं ? और फिर आर्यावर्त के कौन से राजेश्वर आपके जामाता नहीं ? अवन्तीपति चण्ड प्रद्योत कौशाम्बीनाथ मृगांक, पश्चिम समुद्राधिपति उदायन, पूर्व सागरेश्वर अंगराज दधिवाहन, दशार्णपति दशरथ, आर्यावर्त के ये सारे ही शिरोमणि महाराजा आपके जामाता हैं । ये सब मेरी सुन्दरी मौसियों की गोद के छौने बने हुए हैं । और मगध का दुर्दण्ड प्रतापी राजकुमार अजातशत्रु और भवनमोहन वत्सराज उदयन आपके भांजे हैं। आपकी बेटियों ने इन राजकुलों की पीढ़ियों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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