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आगामी मन्वन्तर की तलवार
मैं तो कुछ सोचता नहीं । शून्य ही रहता हूँ । स्वयम् और सहज रहता हूँ । कोई दस्तक देता है, तो भीतर के शून्य में से उत्तर आता है । ऐसा लगता है कि महासत्ता के साथ एकतान और सम्वाद में ही जी पाता हूँ । इसी से अपने परिवेश में और लोक में जो विसंगति और विसम्वाद है, वह मुझे स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उससे मुझे सुरभंग की पीड़ा होती है । तब मेरी स्वानुभूति ही, सर्व के साथ एक मौलिक सहानुभूति का रूप ले लेती है । सत्य, न्याय, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह, इसी स्वानुभूति की जाया सहानुभूति की स्वाभाविक सन्तानें हैं । शब्द और सिद्धान्त मैं क्या जानूं । भीतर का सत् जीवन में बह कर जब तत् बनता है, और फिर आत्मवत् अनुभव होकर मेरे आचार में उतरता है, वही मेरे लिए जीवन है। पता नहीं वैशालीपति को मुझ से समाधान मिला या नहीं। पर मेरे शून्य पर उन्होंने अपने प्रेम का आघात किया है। अब उसमें से जो भी आया, और आये, वह उनका, सर्व का। उस तरह मैं वैशाली के और लोक के कुछ काम आ सकूं, तो मेरा होना सार्थक हो जाये ।
• आज जव मंत्रणा - गृह में पितृजनों के समीप उपस्थित हुआ, तो वे परेशान और विस्थापित से दीखे । उनके भीतर अब तक बने आधार, कल की बात से जैसे ध्वस्त हो गये थे, और वे किनारा पाने को कहीं अधर और मझधार में छटपटा रहे थे ।
'आयुष्यमान्, वैशाली का अस्तित्व खतरे में है । उसका त्राण अब केवल तुम्हारे हाथ है ।'
'वैशाली' से अधिक श्रीमान और शक्तिमान दूसरा राष्ट्र तो मैं आज पृथ्वी पर नहीं जानता, महाराज | उसकी प्रासाद-मालाओं के शिखरों पर दिगंगनाएँ
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