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________________ १९४ 'महार्ध कस्तूरी से सुवासित मंत्रणा - गृह का ऐश्वर्य सम्भ्रमित कर देने वाला है। खिड़कियों पर भी रत्न - कणियों से गुंथे भारी पर्दे पड़े हैं। उनकी मोतियों की झालरों और पन्ने के हरियाले रत्नदीपों की विभा से कक्ष में गहरी शीतलता व्याप्त है । प्रवेश करते ही एक स्निग्ध प्रशांति से मन विश्रब्ध हो जाता है । यहाँ पहली ही बार आया हूँ । इससे पहले बुलाने पर भी, आना न हो सका था । विदेशी की तरह चुपचाप आकर एक ओर खड़ा ही हुआ हूँ, कि सहसा अन्तर्कक्ष का पर्दा हटा कर चेटकराज आये, और उनके पीछे महाराज सिद्धार्थ । पैर छूने को बढ़ा ही था कि वैशालीपति ने मुझे भुजाओं में भर गाढ़ आलिंगन में बाँध लिया । उनकी मुँदी आँखों से उमड़ते स्नेहाश्रुओं से मेरे गाल गीले हो गये । मेरा रक्त उस वात्सल्य की उमड़न से क्षण-भर को ही सही, अछूता न रह सका । यह क्या देख रहा हूँ, कि मातामह ने मुझे अपनी बाँहों से मुक्त करते हुए, सीधे शीर्ष पर बिछे राजसिहासन पर स्थापित कर दिया। जान ही न पाया कि कहाँ बिठाया जा रहा हूँ : सो संकोच को अवसर ही न मिला। बैठ जाने पर देखा, कि दोनों राजपुरुष अगल-बगल लगे भद्रासनों पर बैठ गये हैं। अपनी इस स्थिति को देख कर, केवल स्तब्ध हो रहा । विकल्प न कर सका । अपने को वहाँ बैठे, बस देखा । और स्थिति को समझना चाहा । 'शैशव के बाद आज ही तुम्हें देखना नसीब हो सका, बेटा । तुम्हें किसी भी तरह वैशाली में नहीं पाया जा सका । न रहा गया, सो स्वयं ही चला आया, तुम्हें देखने 'मेरे सौभाग्य की सीमा नहीं, तात । गणनाथ के इस अनुगृह के प्रति नतमाथ हूँ ।' 'अब तुम वयस्क और योग्य हुए, बेटा। तुम्हारे विक्रम और प्रताप की गाथाएँ, ससागरा पृथ्वी पर गूंज रही हैं। अपने ऐसे वंशावतंस् को देखने को बेचैन हो उठा ।' 'मुझ एकलचारी को कौन जानता है, महाराज । जैसे लोक से बाहर कहीं. खड़ा हूँ ।' 'इसी से तो अपूर्व और अलग दीखे, सो पहचान लिये गये । पिप्पली- कानन के मेले से लौट कर, लिच्छवि-कुमार तुम्हारा गुणगान करते थकते नहीं । और सुना, विदेह, मगध, कौशल, काशी, अंग-बंग तक के सारे सन्निवेशों की प्रजाओं के बीच तुम प्रकाश की तरह घूम गये। तब से वैशाली के राजकुमार को देखने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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