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________________ १८३ ब्रह्म-क्षत्रिय । लेकिन संकर तुम दोनों ही नहीं, मैं भी हूँ ! • • “हाँ, तो ये तक्षशिला से सारी वेद-वेदांग विद्याओं में पारंगत होकर आये हैं। पर बड़ी बात यह कि महाभाव-राज्य के स्वर-विहारी कवि हैं सोमेश्वर !' ____सोमेश्वर सहज लज्जानत आँखों से, सस्मित वैनेतेयी को देखते रहे । पर आदत के अनुसार आज आँखें नीची न कर सके । 'और ये वैनतेयी चक्रपाणि हैं, सोमेश्वर । यूनानी माँ की यह जाया, भारत के ब्रह्मतेज की बेटी है। पूर्व और पश्चिम की सुनीला सन्धि है वैनतेयी ! · · 'तुम्हारी अदिति इसके पास है। वह अनन्तिनी इसमें सान्त हुई है। जो अपार आकाशों के भी पार है न, वह इसमें रूप धर कर आ गयी है, कवि के लिए, नन्द्यावर्त में · · ·! 'और वैना, ये तुम्हारे कवि हैं। तुम स्वयम् कविता हो, दिति और अदिति एक साथ हो । ये तुम्हारे उस संयुक्त अन्तःसौन्दर्य के गायक, कवि हैं !' 'आर्य-श्रेष्ठ सोमेश्वर से मिल कर मैं आप्यायित हुई। अहोभाग्य मेरा !' और वैना ने हाथ जोड़, नतमाथ हो कर प्रणाम किया सोमेश्वर को। 'तुम्हें प्रमद-कक्ष में बहुत अकेलापन लगता है न, वैना ? मेरे कवि-मित्र ने कृपा की मुझ पर । आ गये तुम्हारा साथ देने।' 'नहीं, अब मुझे अकेलापन नहीं लगता, प्रभु !' । 'पर सोमेश्वर को लगता है । और तुम्हें अब नहीं लगता, तो वह विद्या मेरे इस मित्र को भी सिखा देना ! • • . 'और सोमेश्वर, जब चाहो निःसंकोच प्रमद-कक्ष में वैना के पास आ जाया करो। अन्य भाव की शंका न रहे । अनन्य और आश्वस्त भाव से आओ। वैना अचूक है।' क्षण भर एक गहन शान्ति व्याप रही। . . 'अच्छा तो, ना, लिवा ले जाओ सोमेश्वर को. और दिखाओ इन्हें अपने अनेक ऐश्वर्य-कक्ष । मैं अब आज्ञा लूंगा तुम लोगों से।' कह कर मैं उठ खड़ा हुआ। सोमेश्वर कठिनाई और असमंजस में था। बहुत भर आया-सा दीखा कवि । मुझे छोड़ कर जाने में उसे आज मानो कप्ट हो रहा था। मैंने कहा : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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