________________
१६८
द्यावा और पृथ्वी की मिलन-रेखा थी वह : देवों की आदि जनेत्री । सुन्दर है, सुखद है। पर पूछता हूँ, उससे भी परे जाने में भय क्यों है ? एक और अदिति एक और । तब एक अनुत्तरा अदिति । जहाँ फिर तुम स्वयम् ही हो, अपने लिए पर्याप्त । द्वितीय कोई अनावश्यक ।'
'लेकिन मैं कवि हूँ, मान ? सृष्टि से विराम या पलायन मेरा अभीष्ट नहीं । लोक से परे और अलग, कोई लोकोत्तर आत्म मुझे निःसार दीखता है । कल्पना मात्र ।'
'ठीक कहते हो । ऐसा कुछ लोकोत्तर है भी नहीं। क्योंकि जो सत् है, अस्ति है, वह लोकाकाश से परे कहीं नहीं । और आत्म यदि सत् है, तो वह लोकातीत कैसे हो सकता है ? पर अपने आप में वह निग्रंथ और अनन्त हो सकता है । एक शुद्ध और स्वतंत्र द्रव्य हो सकता है। एक सर्व से अनिर्भर, स्वाधीन क्रिया । ही तो अदिति है ।'
'पर तुम पूछ रहे थे, मान, और भी परे जाने में भय क्यों है ? भय यों है, कि अवबोधन से परे, कोई अनन्त शून्य - कुछ नहीं : वह तो असह्य है । मैं अनन्त शून्य नहीं, अनन्त जीवन चाहता हूँ । समझ रहे हो न मेरी वेदना ?'
'खूब समझ रहा हूँ, सोम ! पर शुद्ध आत्म तत्व, कोई अपदार्थ शून्य नहीं । एक नितान्त द्रव्य, पदार्थ, संवेद्य सत्ता है वह । वह एकदम ग्राह्य, भोग्य, स्वाद्य है । एकदम तुम्हारी अपनी, तुम्हारे हाथ की वस्तु ! गाढ़तम आलिंगन में आबद्ध प्रिया से भी अधिक सत्य, अविच्छेद्य, अवियुक्त, एकदम तुम्हारी, केवल तुम्हारी । अनन्त जीवन चाहते हो न, तो उसके नित्य भोक्ता, ज्ञाता, द्रष्टा होने को स्वयम् अनन्त होना चाहोगे कि नहीं ?'
'सान्त से परे, अदिति से परे का कोई अनन्त नहीं ! '
'तुम्हारी आत्मा ही वह अदिति है, सोम ! सान्त और अनन्त दोनों है वह, तुम्हारी चाह के अनुसार । काम तुम्हारा एकाग्र और आत्मकाम हो, तो माँ, प्रिया, जिस रूप में चाहो, अदिति तुम्हें सुलभ है । कभी वही तुम्हें अपने अनन्त गर्भ से जन्म देकर सान्त में लाती है । कभी वही सान्त प्रिया का आलिंगन बन, तुम्हें फिर अपने अनन्त गर्भ में मुक्त कर देती है । अनन्त और सान्त एक ही द्रव्य वस्तु के दो भाव हैं, दो परिणमन हैं । ऐसे अनन्त भाव एक साथ सम्भव हैं, आत्मा में और वस्तु में । वह सान्त भी है, अनन्त भी है । वह अनेकान्त है, सोम ! अनेक-रूपा है : अनेक-भाविनी है । सो वह अनन्तिनी है । और जो अनन्त संभव है, ह सान्त भी होने से कैसे इन्कार कर सकती है। एक खास परिप्रेक्ष्य में, वह तद्रूप हमें सुलभ होती है । ऐसी सुलभता जहाँ है, वहाँ भय कैसा, विरह कैसा ? "
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org