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________________ कौन जिये ? क्या जिये ? कहां जिये . . . हाय, कैसे जिया जाये ?' कविता समाप्त करते-करते, मैंने देखा, सोमेश्वर का सारा चेहरा, जैसे पारदर्श अग्नि हो गया था। उस अग्नि में, लेकिन, बहुत गहरे कहीं, एक नीली, शीतल, उमिल नदी थी। क्षण भर हम परस्पर एक-दूसरे को आर-पार देखने को उत्कंठित, चुप हो रहे । सोमेश्वर, ऊपर से नीचे तक कवि हो । मैंने उशनस् को देखा : मैंने उद्गीथ को साक्षात् किया । अधमर्षण से नचिकेतस् तक, ज्ञान की एक अखण्ड धारा को प्रवाहित देखा। प्रश्नों और उत्तरों की एक अन्तहीन तरंग-माला। सृष्टि की आदिकालीन महावेदना में से प्रसूत वेद और उपनिषद् के सूर्य-पुरुषों को देखा । और तुम भी उनमें से एक हो, मित्र । तुम्हारी वेदना को समझ रहा हूँ। . . .' 'क्या उपाय है वर्द्धमान, जो हूँ, वही तो रचा है । मैं नहीं रुक सका, महान् याज्ञवल्क्य और नचिकेतस् पर भी। लेकिन आगे, पता नहीं. • • ?' 'हाँ, हाँ, ठीक है । क्यों रुको कहीं भी, जब तक समाधान अपना अत्यन्त निजी न पा जाओ। व्यक्ति के होने का यही तो प्रयोजन है। सो अनुत्तर ज्ञान के जिज्ञासु का प्रश्न अत्यन्त निजी होगा ही। निजता बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसी से तो कवि हो तुम ।' 'चैन नहीं है, मान ! प्रश्न इतना तीखा हो उठा है, कि अपनी इयत्ता हाय से निकली जा रही है। एकाएक देह गायब होती-सी लगती है। और भयभीत हो जाता हूँ।' 'समझ रहा हूँ, सोम ! मृत्यु की अनभूति । यानी फिर गर्भ में लौटने की कामना। • · अच्छा यह बताओ, अपनी माँ की तुम्हें याद है ?' 'मां को मैंने नहीं देखा । एक विचित्र स्वप्न जैसी स्मृति है : एक सौन्दर्य की नीला आभा-सी कहीं देखी है। तन्वंगी। और हमारे कुटीर के सामने से बहती सुपर्णा नदी के प्रवाह पर कहीं, एक श्वेत वसना तापसी को दूर-दूर जाते देख रहा हूँ। · · वह ओझल हो गयी : मैं तट पर अकेला छूट गया हूँ। · · · पिता इतने अन्तर्मुख थे, कि उनसे मेरा बालक कोई उत्तर कभी न पा सका । मैं दो बरस का था, मुश्किल से · · ।' 'समझ रहा हूँ सोम, कहाँ है तुम्हारी ग्रंथि ! प्रजापति परमेष्ठिन् की आदि माता अदिति को तुमने ठीक पकड़ा है। वह अनन्त थी, सर्व का उत्स थी। लेकिन पृथ्वी पार के आकाश और अन्तरिक्ष के क्षितिज से परिसीमित थी, ऋषि के लिए। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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