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'जाना-आना, कहाँ है, सुवर्णा ? अपने ही में तो यह सब घटित होता है। अपने में पूरी रहो, और मुझे पूरा अपना लो। तो फिर जाने-आने का झमेला ही खत्म हो जाये !'
'कब लौटा लाओगे हमें फिर, अपने पास ?' बोली गांधारी प्रियांबा । हाय, नारी की बंधने की कातर चाह का अन्त नहीं !
'नदी हो। समुद्र में से ही एक दिन उठकर, बादल बनी थी, स्वेच्छा की तरंग में । घूम-फिर कर, फिर एक दिन समुद्र में ही लोटोगी। फिर चिन्ता किस बात की,
कल्याणी !'
· · · सब के चेहरों पर मैंने समाधान की पूर्ण आश्वस्ति देखी। समवेदना की बहुत महीन पानी ली पर्त में, वे उन्मुख, ऊर्मिला योगिनी ही लगीं, वियोगिनी तो जरा भी नहीं लगीं ।
सब को सजल नयन एक साथ प्रणिपात में विनत देख कर, अनुभव किया, ये सब मेरी ही तो हैं, अशेष मेरी । और मैं समूचा इनका । चुपचाप जाती उन सबके चरणों के मंजीरों में कैसी मधुर आगमनी बज रही है ! नदियाँ समुद्र में मिलने को दौड़ी आ रही हैं।
सहसा ही देखा, वैनतेयी कक्ष में चली आ रही है। सर्प-कंचुक-सा महीन नीला उत्तरासंग धारण किये है । चेहरे को घेर कर, दोनों कन्धों पर ढलके उसके घने घुघराले कुन्तल उसका भामण्डल बन गये हैं। उज्ज्वल लिली फूलों की शोभा उसके मुख-मण्डल पर व्याप्त है । निस्पन्द, लम्बी, तन्वंगी, संचारिणी दीपशिखा-सी वह चली आ रही है।
'ओ, वैनतेयी, तुम कहाँ रह गई थीं ?' 'बाहर छत में थी।' 'सब से अलग ?' 'राज-कन्याओं के बीच, मेरा क्या काम ?' 'तो तुम · · ?' 'दासी हूँ, देव । दासी-पुत्री भी !' 'अधिक वरणीया हो मेरे निकट । वर्द्धमान तुम्हारा अभिषेक करता है 'संकर हुँ, प्रभु ! इस योग्य कहाँ ?'
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