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________________ १५४ 'और कोशा, तुम्हारी घोषा वीणा तो अब हमारे भीतर निरन्तर बजती रहती है। कितनी अच्छी हो तुम, समूची भीतर आ बैठी हो, और अपनी वीणा में मझे समूचा बजाती रहती हो । अद्भुत है, वत्स देश की कन्या का संगीत कोशल !' वैशाली की वन्दना सबकी ओर से बोली : 'महादेवी का आदेश मिला है । हम सब अपने घर लौट रही हैं । विदा दें, वर्द्धमान कुमार, तो हम सब , - - ‘जायें।' लड़की का गला भर आया था। 'विदा तो वर्द्धमान किसी को देता नहीं। क्योंकि विछोह उसके वश का नहीं। यह उसका स्वभाव नहीं !' ___ 'आप कहां चाहते हैं, कि हम सब यहाँ रहें ! इसी से तो जाने की बात उठी 'मैंने कब कहा, कि तुम जाओ। अपनी बात महादेवी जानें । चाहो तो सदा मेरे साथ रह सकती हो । उसमें यहाँ रहने या और कहीं रहने से क्या अन्तर पड़ता है ?' 'आप अपने पास रक्खें, तो और कहीं क्यों जायें हम ?' 'मेरे साथ कुमारियाँ ही रह सकती हैं। विवाह की सीमा मुझे सह्य नहीं । क्योंकि उसमें आखिर कहीं वियोग है ही। और वियोग मेरा स्वभाव नहीं। सोच लो तुम सब !' ___ सबकी सब आँखें झुका ये, चुप हो रहीं। कमरे में एक गहरा सन्नाटा व्याप गया। तब मगध की सुवर्णा बोली : 'आप हमें रोकना नहीं चाहते न ?' 'रोकने वाला मैं कौन होता है ? रहोगी तो अपने से, जाओगी तो अपने से । कौन किसी को यहां बांध कर रख सकता है, सुवर्णा !' 'और कोई बंधना ही चाहे तो?' 'मोह की यह मधुर भ्रांति सच ही बहुत मादक है । मगर, काश, मैं तुम्हें, तुम सब को बांध कर रख सकता, स्वयम् बंध कर रह सकता !' 'आप चाहें, तो क्यों नहीं, देव !' 'जो स्वभाव नहीं, सत्य नहीं, वह कैसे चाहूँ ? मोह में पड़ कर, तुम्हारा विछोह भोगू, यह मेरा प्रेय नहीं।' 'तो हम सब जायें, महाराज ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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